नई दिल्ली। प्रियंका गांधी वाड्रा को आधे उत्तर प्रदेश का महासचिव बनाकर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने आखिरकार वह घोषणा कर दी, जिसका इंतजार कांग्रेस के नेता सोनिया गांधी के पहली बार कांग्रेस अध्यक्ष बनने के दिनों से कर रहे थे. जो लोग कांग्रेस की राजनीति को करीब से देख रहे हैं, उन्हें पता है कि राजीव गांधी की मृत्यु के बाद इस बात के कयास लगाए जाते थे कि दादी इंदिरा से मिलती-जुलती शक्ल वाली प्रियंका ही सियासत में परिवार की उत्तराधिकारी होंगी. वहीं मोटा चश्मा लगाने वाले राहुल गांधी के बारे में शुरू से ही कहा जा रहा था कि वह राजनीति को लेकर अपने पिता राजीव गांधी की तरह ही अनमने हैं.
लेकिन जब सोनिया गांधी ने राहुल गांधी को अपना वारिस बनाया तो यह मिथ टूट गया और पार्टी ने राहुल को अपना नेता मान लिया. लेकिन इसके बावजूद प्रियंका को राजनीति में लाने की मांग कम नहीं हुई. 23 जनवरी को पूर्वी उत्तर प्रदेश की प्रभारी महासचिव बनाए जाने से पहले तक प्रियंका गांधी कांग्रेस की प्राथमिक सदस्य तक नहीं थीं और वह अपनी मां सोनिया गांधी की लोकसभा सीट रायबरेली का प्रभार संभालती थीं.
अब जब राहुल गांधी ने प्रियंका की एंट्री खास अंदाज में की है तो इसके मायने समझना लाजिमी होगा. कांग्रेस में लंबे समय बाद ऐसा हो रहा है कि किसी व्यक्ति को पूरे प्रदेश के बजाय आधे प्रदेश का महासचिव बनाया जाए. प्रियंका को आधे प्रदेश का महासचिव बनाने का एक अर्थ तो यह लगाया जा सकता है कि उनका कद बहुत बड़ा नहीं रखा गया है. लेकिन इस तर्क को कोई मानेगा नहीं. ऐसे में यही मानना पड़ेगा कि पूर्वी यूपी प्रियंका और पश्चिमी यूपी ज्योतिरादित्य सिंधिया को सौंपकर राहुल ने दिखाया है कि वह यूपी को दो प्रदेशों के बराबर या उससे भी ज्यादा अहमियत दे रहे हैं.
एक तरह से देखा जाए तो सक्रिय राजनीति में आने के बाद से ही राहुल गांधी के दिमाग में एक बात छाई हुई है कि किस तरह यूपी में कांग्रेस को जिंदा किया जाए. इसके लिए हर साल दो साल में वे यूपी को लेकर नए प्रयोग करते रहे हैं. अगर 2009 लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को यूपी में मिली जबरदस्त कामयाबी को छोड़ दें, तो यूपी में राहुल के सारे प्रयोग अब तक नाकाम रहे हैं. ऐसे में छोटी बहन प्रियंका को मैदान में उतारकर राहुल ने कांग्रेस का ब्रह्मास्त्र चल दिया है.
प्रियंका के राजनैतिक प्रयोग से पहले जरा देखिए कि राहुल यूपी में इसके पहले क्या-क्या करते रहे हैं. तो सबसे पहले आपकी निगाह 2007 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव पर जाएगी. इस चुनाव में राहुल गांधी ने पहली बार यूपी में जमकर प्रचार किया. लोगों ने उन्हें हाथों हाथ लिया और उन्हें देखने लोगों की भीड़ उमड़ी. लेकिन यह भीड़ वोट में कनवर्ट नहीं हुई. कांग्रेस पार्टी को बुरी तरह चुनाव में मात खानी पड़ी.
लेकिन राहुल ने हार नहीं मानी. एक तरफ वे मनरेगा जैसी योजना से लोगों तक पहुंचे, दूसरी तरफ दलितों के घर भोजन करते रहे. इन सारी चीजों ने असर दिखाया और 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को यूपी में 18 फीसदी से ज्यादा वोट और 20 से ज्यादा लोकसभा सीटें मिलीं. 1984 के बाद यूपी में कांग्रेस का यह सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन था.
उसके बाद राहुल गांधी ने बुंदेलखंड पैकेज दिया और पिछड़े इलाके के गांव-गांव घूमे. केंद्र में अपनी सरकार होने के बावजूद वह नोएडा के भट्टा पारसौल में किसानों के साथ धरने पर बैठे और गिरफ्तारी दी. एनआरएचएम घोटाले को लेकर वह लखनऊ में सड़कों पर उतरे. इस तरह से देखा जाए तो यूपीए-2 में राहुल गांधी पूरी ताकत इस बात पर लगाए रहे कि 2009 की लोकसभा सफलता को यूपी विधानसभा 2012 में जारी रखा जाए. लेकिन राहुल एक बार फिर नाकाम रहे. कांग्रेस की सीटें बहुत ही कम रहीं.
राहुल यहां नहीं रुके. लोकसभा चुनाव में उन्होंने पूरी ताकत लगाई. लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव में राहुल और सोनिया गांधी के अलावा कोई कांग्रेसी नेता सांसद नहीं बन सका. राहुल गांधी के लिए यूपी में यह जबरदस्त नाकामी थी.
उसके बाद राहुल ने नए सियासी समीकरण पकड़े और 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव से पहले शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री पद का दावेदार और राज बब्बर को प्रदेश अध्यक्ष बनाकर यूपी जीतने का प्लान बनाया. राजनैतिक मैनेजर प्रशांत किशोर के इशारे पर कांग्रेस ने ‘27 साल यूपी बेहाल’ का नारा दिया. राहुल गांधी ने पूरे प्रदेश की यात्राएं शुरू कर दीं. लेकिन चुनाव से पहले ही राहुल को अंदाजा लगा कि उनका दांव नाकाम हो रहा है.
पार्टी ने एक बार फिर रणनीति बदली और समाजवादी पार्टी के साथ मिलकर 2017 का विधानसभा चुनाव लड़ा. कांग्रेस ने नारा बदलकर ‘यूपी को ये साथ पसंद है’ कर दिया. लेकिन यूपी को साथ पसंद नहीं आया और कांग्रेस को महज 7 विधानसभा सीटें मिलीं. इस तरह यूपी में 10 साल की मेहनत के बाद राहुल गांधी को फिर नाकामी मिली.
अब जब 2019 का लोकसभा चुनाव सामने है और राहुल के सारे अस्त्र-शस्त्र नाकाम हो गए, तो वह रामबाण नुस्खे की तरफ रुख कर रहे हैं. एक ऐसे चुनाव में जब कांग्रेस बिना किसी सहारे के अपने दम पर चुनाव में उतर रही है और राहुल गांधी की अध्यक्षता में होने वाला यह पहला आम चुनाव है, तब राहुल प्रियंका को सियासत में लाए हैं.
प्रियंका पूर्वी यूपी की प्रभारी हैं. इसका मतलब हुआ कि राहुल, सोनिया के अलावा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकसभा सीट वाराणसी, समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव की सीट आजमगढ़, यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का गढ़ गोरखपुर, रामजन्म भूमि विवाद का केंद्र फैजाबाद लोकसभा सीट, मायावती की पुरानी लोकसभा सीट अकबरपुर सब की सब सीटें प्रियंका गांधी के कार्यक्षेत्र में आएंगी.
इस तरह से राहुल गांधी ने पूर्वी यूपी में पीएम मोदी के सामने प्रियंका को पेश किया है. प्रियंका सक्रिय राजनीति में आने वालीं नेहरू गांधी परिवार की पांचवीं महिला होंगी. इससे पहले विजय लक्ष्मी पंडित, इंदिरा गांधी, सोनिया गांधी और मेनका गांधी इस परिवार से सियासत में आ चुकी हैं. मां सोनिया की तरह प्रियंका भी कांग्रेस के सबसे बुरे वक्त में पार्टी में आई हैं. जाहिर है उनकी जिम्मेदारी उससे कहीं बड़ी है, जितनी की कोई भी अनुमान लगा सकता है.
अगर वह नाकाम होती हैं तो कांग्रेस के लिए एक बहुत बड़े अवसर का हमेशा के लिए चुक जाना होगा, अगर वे कामयाब होती हैं तो वह पार्टी के भीतर राहुल के लिए चुनौती मानी जाएंगी. लेकिन इस सबसे पहले प्रियंका को साबित करना होगा कि वे पर्दे के पीछे से ही नहीं, जनता के बीच भी दमदार राजनीति कर सकती हैं. यही राहुल का आखिरी दांव है.