राजेश श्रीवास्तव
लखनऊ । राहुल गांधी इन दिनों अपने इस्तीफे को लेकर अड़े हुए हैं। लेकिन यह समय आपके इस्तीफे का नहीं है। यह समय विचार करने का है कि आप क्यों हारे ? आप इस पर मंथन करिये। ऐसा नहीं कि आज सत्ता पर काबिज भारतीय जनता पार्टी कभी चुनाव नहीं हारी। याद कीजिये वह वक्त जब भाजपा दो सीटों पर थी। और आज वह तकरीबन साढ़े तीन सौ सीटों पर है। आज यह भी याद कीजिये कि कभी आपकी दादी इससे भी ज्यादा सीटें जीतती थीं। वह इससे भी बड़ी जीत हासिल करती थीं लेकिन तब भाजपा या अन्य दलों में निराशा नहीं आयी। आज वक्त इस बात का नहीं है कि आप इस्तीफा देकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री न कर लें। आज वक्त है इस बात की समीक्षा करने का कि आप क्यों हारे, क्यों सीटें कम हुईं।
क्यों आप मजबूत विपक्ष का न तो संदेश दे पाए और न ही कोई ऐसी भूमिका निभा पाए। आपने वह बडाè अवसर गंवा दिया जो आपने तीन राज्यों में जीत हासिल करके पाया था।
गौरतलब है कि राहुल गांधी जनवरी 2०19 तक बहुत अच्छा चले। इसके बाद वह असंतुलित होते चले गए। उन्होंने पहली गलती राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश के चुनाव नतीजे आने के बाद की थी। कांग्रेस अध्यक्ष ने राजस्थान और मध्यप्रदेश में बूढ़े अशोक गहलोत और वरिष्ठ कमलनाथ को युवा सचिन पायलट और ज्योतिरादित्य से ज्यादा तरजीह दे दी। जबकि पार्टी में राहुल गांधी को सुधार के लिए जाना जाता रहा।
वह पार्टी का युवा चेहरा, युवा महासचिव, युवा कांग्रेस उपाध्यक्ष और युवा कांग्रेस अध्यक्ष बनकर उभरे थे। उन्होंने कई बार मंच से कहा था कि उन्होंने पार्टी के मंच को वरिष्ठ नेताओं से युवा नेताओं के लिए खाली कर दिया है। लेकिन जिम्मेदारी आने के बाद कांग्रेस अध्यक्ष इसका सही संदेश नहीं दे पाए। न तो संगठन में और न ही देश में। राहुल गांधी के पास महासचिव और उपाध्यक्ष बने रहने तक युवा नेताओं (मीनाक्षी नटराजन, सुष्मिता देव, सचिन, जतिन, ज्योतिरादित्य, राजीव सतव, आरपीएन) की टीम दिखाई पड़ती थी।
राहुल गांधी भाजपा के राष्ट्रवाद और हिदुत्व के मुकाबले में युवा, युवाओं से जुड़े मुद्दे और युवा मतदाता का स्पेस नहीं बना सके। गुजरात और कर्नाटक चुनाव तक बनी सॉफ्ट हिदुत्व की छवि को नहीं संभाल सके। इतना ही नहीं पुलवामा पर आतंकी हमले के बाद ऐसा कई बार लगा जैसे कांग्रेस पार्टी कुछ तय नहीं कर पा रही है।
कांग्रेस अध्यक्ष के पास चार बड़े मुद्दे थे। पहला वादा था कि कांग्रेस की सरकार बनने पर देश के 2० प्रतिशत गरीब परिवार को हर साल 72 हजार देंगे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कॉरपोरेट घरानों का भला करते हैं, उन्होंने अनिल अंबानी की जेब में 3० हजार करोड़ रुपये डाले, चौकीदार चोर है। सूत्र का कहना है कि राहुल गांधी का बड़ा फोकस इन्हीं मुद्दों पर रहा। वह इसी को दोहराते रहे। जबकि किसान का कर्ज़ा माफ और चौकीदार चोर के मुद्दे पर राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश में सत्ता में आ चुकी थी। कहने का अर्थ यह कि कांग्रेस अध्यक्ष कुछ नया नहीं ला पाए। कुछ नया मुद्दा खड़ा नहीं कर पाए। वह भाजपा के राष्ट्रवाद के मुकाबले बौने नजर आए। चुनाव प्रचार के दौरान उच्चतम न्यायालय के राफ़ेल लड़ाकू विमान सौदे से जुड़े मामले की सुनवाई पर उन्होंने गलत बयान भी दिए। विश्लेषकों का मानना है कि इससे राहुल की छवि को धक्का लगा और इसका असर कांग्रेस पार्टी पर भी पड़ा।
गलत तरीके से की प्रियंका की लांचिंग
कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी अपनी बहन प्रियंका गांधी वाड्रा को राजनीति में लेकर आए, लेकिन जिम्मेदारी देने में चूक गए। वह प्रियंका को जिम्मेदारी के लिहाज से आधे उत्तर प्रदेश (पूर्वांचल) में उन्हें समेट दिया। चुनाव में प्रत्याशी बनाने की चुनौती भी नहीं दे पाए। प्रियंका को केवल एक चुनाव प्रचार का टूल बनाए रखा। हालांकि प्रियंका ने अपनी भूमिका बहुत जिम्मेदारी से निभाई, लेकिन ऐसा कई बार लगा कि उनके पास अच्छे सलाहकार नहीं हैं। प्रियंका के पास जिम्मेदारी बड़ी थी, दांव पर बहुत कुछ था लेकिन उनके पास इस लिहाज से समय कम था। लिहाजा प्रियंका हड़बड़ी में दिखीं। यहां तक कांग्रेस पार्टी उत्तर प्रदेश में देश के अन्य हिस्सों में आसानी से जीत सकने वाली सीटों को भी फोकस नहीं कर पाई।
यह कांग्रेस की संस्कृति नहीं है
प्रचार और मीडिया के लिए कांग्रेस पार्टी ने जो रणनीति अपनाई थी, वह उसकी संस्कृति का हिस्सा नहीं है। पार्टी अध्यक्ष खुद देश के प्रधानमंत्री को लगातार, बार-बार चीख-चीख कर चोर कह रहा है। पार्टी का मीडिया प्रभारी खुद इसी राह पर आक्रामक है। देश के शीर्ष नेतृत्व के ऊपर ओछी टिप्पणी हो रही है। वह भी बिना कोई ठोस आधार खड़ा किए। केवल धारणा बनाने की कोशिश के बल पर बिना आधार खड़ा किए चाहे राष्ट्रवाद का मुद्दा हो या भ्रष्टाचार का, किसानों का हो या युवाओं की बेरोजगारी का, लोकतंत्र में सफलता नहीं मिल सकती।