के विक्रम राव
हांगकांग से भली खबर आई है| पच्चीस लाख स्वाधीनता प्रेमियों ने शी जिनपिंग की कट्टर कम्युनिस्ट सरकार के फतवे को निरस्त करने के लिये मजबूर कर दिया| प्रत्यर्पण कानून रद्द करना पड़ा| चीन चाहता था कि हांगकांग के विद्रोहियों को चीन की जेलों में रखा जाय जहाँ उन्हें मार दिया जाता| हांगकांग की जनता द्वारा जनवादी चीन को झुकाना जनशक्ति की जीत है|
हांगकांग में ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ विद्रोह अगस्त 1967 में हुआ था| तब ब्रिटिश सत्ता पराजित हुई थी| तबका मेरा लेख डॉ. धर्मवीर भारती ने “धर्मयुग” में 10 सितम्बर 1967 के अंक में छापा था|
आज कम्युनिस्ट चीन के सन्दर्भ में तब के साम्राज्यवादी ब्रिटेन को मात देना भी हांगकांग की जनता का कीर्तिमान है| आज पचास वर्ष पुराना मेरा वह लेख सामायिक लगता है| नीचे प्रस्तुत है|
हांगकांग में हलचल
लाल झण्डा लिया, नारे लगाते हुऐ चार हजार लोगों का उत्क्रोश सुनकर भी गवर्नर सर डेविड ट्रेंच ने कोई परेशानी व्यक्त नहीं की। सिर्फ अपने कुत्ते को राजभवन से दूर भिजवा दिया क्योंकि शोरगुल से पीटर सहम गया था। कोवलून के तंगहाल श्रमिकों ने महंगाई के प्रतिरोध में जुलूस निकाला, तो अशान्त उपनिवेश में विस्फोट हो गया। उसकी लपटों में झुलसती ब्रिटिश सरकार की दशा भी ठीक गवर्नर के पालतू जानवर सरीखी हो गयी, सहमी, कुछ थरथरायी-सी!
यह हंगामा मचा हांगकांग में जिसे अंग्रेज प्राच्य में पश्चात्य का दरीचा मानते हैं और कम्युनिस्ट चीन अपना निवाला। माओवाद से त्रस्त चीनी बुद्धिजीवी इस द्वीप में आश्रय तलाशते हैं। राजनीतिक षड्यन्त्रकारियों की यहाँ बन आती है। तो तस्कर व्यापारियों की भी। रात की बाँहों में खोये हांगकांग में रूमानी उलझन लिये हुए रूप के सौदाई की तुष्टि होती है। शंघाई से आयी नवेलियाँ सुकून पाती हैं। बीजिंग की गतिविधि भाँपने आये पश्चिमी (अब रूसी भी) खुफिया गिरोहों का यहाँ हमेंशा जमाव रहता है। इस जजीरे की निर्यात सामग्री मे अभिनेत्री नान्सी क्वान खास है। इन सबके अलावा हांगकांग कुछ और भी हैः सनसनीखेज खबरों की यह खान है। विगत पाँच महीनों में कोई दिन शायद ही ऐसा बीता हो जब इस टापू से रोमांचक संवाद या वारदात सुनने को न आई हों। इस बार सिलसिला नये तौर पर शुरू हुआ था, प्लास्टिक कारखाने के मजदूरों की हड़ताल से। बढ़ती कीमतों और गिरते जीवनस्तर पर रोष व्यक्त करने के लिए श्रमजीवियों ने नाथान रोड से जुलूस निकाला। बर्तानिया की महारानी की सरकार से सवाल सीधा थाः दाम बांधो या वेतन बढ़़ाओ। उसी वक्त शार्प स्ट्रीट अपने माचिसनुमा दफ्तर में बैठे नवचीन संवाद समिति के प्रमुख ची फेंग की सूझ ने फुर्ती दिखायी। सांस्कृतिक क्रांति के ज्वार में उनके पोषक और दाता टाउ चू की बीजिंग में दुर्गति की गयी थी। हांगकांग में बैठे ची फेंग को आशंका हुई कि उनकी अब खैर नहीं। संकटमोचन हेतु, या फिर यह साबित करने के लिए कि दिल में क्रांति के वलवले अभी गुल नहीं हुए ची फेंग ने नेतृत्वहीन मजदूरों के विद्रोह की अगुवाई हथिया ली। उसे माओवादी विप्लव का जामा पहनाना चाहा। श्रमिकों की आर्थिक माँगें राजनीतिक रंग में ढल गयीं। पूंजीवादी ब्रिटिश साम्राज्यशाहों पर ची फेंग ने निशाना साधा, मजदूरों के कन्धों पर सवार होकर। शान्त और निरस्त्र जुलूस बैंक ऑफ़ चायना के सामने पहूँचते ही हिंसक और रक्तिम हो उठा। गिरफ्तार उपद्रवियों में बीजिंग से वेतन पाने वाले कई कम्युनिस्ट शरीक थे। मंजिलों की ऊंची छत से पुलिस और पथिकों पर हथगोले फेंके गये। फुटपाथ और समुद्र तटपर टिकी नावों मे रात बिताने वाले मजदूरों के लिए यूं भी गुजर करनी दूभर रहती है। बम और गोलियों के लिए उनके पास पूंजी कहाँ!
लेकिन घटनाओं के मोड़ से जन-आन्दोलन का विकृत रूप दुनिया के सामने पेश हुआ। चन्द लाल किताबें और माओवादियों की सक्रियता देखकर अंग्रेजों ने इसे कम्युनिस्ट अराजकता करार दिया। इस संज्ञा को सहर्ष स्वीकार कर बीजिंग के मौकेबाजों ने प्रचार किया कि साम्यवादी आन्दोलन शुरू हो गया है। असलियत यह थी कि स्वयं भाग्यविधात्री बनने की आकांक्षिणी हांगकांग की स्वराज्यप्रिय जनता अगर फौजी गवर्नर तथा साम्राज्यवादियों के लिए पानी सप्लाई बन्द कर दे, तो लन्दन जाने वाला पहला वायुयान पाने के लिए हांगकांग के काई-टेक हवाई अड्डे पर तृषित अंग्रेजों का तांता बंध जायेगा। आखिर चीन को फिर हिचक किस बात की है? विश्वयुद्ध की आशंका है? अरूणाचल के मैदान तक घुस आये थे तो यह डर नहीं लगा था? हनोई और हैफांग पर हर रोज अमरीकी बम गिरते हैं, आँच कहीं और नहीं फैली? निचोड़ यही है कि चीन की इस आनाकानी के पीछे उसका निहित आर्थिक स्वार्थ है। हांगकांग को अन्न, वस्त्र और पानी बेचने से चीन की एक तिहाई राष्ट्रीय आय होती है। टापू की सैर पर आये पश्चिमी खरीदारों से चार करोड़ की दुर्लभ विदेशी मुद्रा उसे मिलती है। सोना और अफीम की तस्करी से बीजिंग की आमदनी दूनी होती है। उससे ताज्जुब की बात रूस ने बतायी कि माओ और उनके कामरेडों ने हांगकांग-स्थित पश्चिमी बैंको में गुप्त बहीखाता खोला है ताकि गृहयुद्ध में अगर पराजित हो गये तो प्रवास में गुजारा चल सकें।
ऐसा ही आलम है हांगकांग के चीन समर्थकों का। दीन, दलित, सर्वहारा वर्ग के हितैषी और झाऊ एन-लाई के आत्मीय फेई ई-मिंग आलीशान कण्ट्री क्लब के सदस्य हैं जो लखपति सिन्धी व्यापारी के बूते के भी बाहर है। मार्क्स और माओ के कई हिमायती पार्क रोड पर शानदार इमारतों, नाव कम्पनियों और कपड़ा मिलों के मालिक हैं। उनका मनबहलाव सूजीवांग में मधुशालाओं की रंगीन शामों से होता है। इन्हीं बीजिंग प्रतिनिधियों के जिम्मे सन् 50 में काम सिपुर्द किया गया था कि जनवाद और विश्वशान्ति के लिए संयुक्त राष्ट्रसंघ की सेना से लड़ रहे उत्तर (कम्युनिस्ट) कोरिया के सिपाहियों की सुश्रुषा के लिए जावा और बैंकाक की सन्दली बाँहों वाली परिचारिकायें भेजी जायेंगी। आज भी यह बात हो रही है। वियतनामी स्वातन्त्रय- संघर्ष को कुचलने के लिए भेजे गये अमरीकी सैनिक हांगकांग में छुट्टी हसीन बनाने आते हैं। वियतकांग से मौखिक हमदर्दी दिखाने वाले चीन ने अपने पड़ोस में इन अमरीकियों की उपस्थिति का विरोध नही किया। कारणः ये अमरीकी सैनिक चीनी वारांगनाओं पर डालर लुटाते हैं जिनसे चीन आस्ट्रेलिया से शस्त्र और सोना खरीदता है।
इन बीजिंगवादियों से कोई ज्यादा बेहतर स्थिति बिटिशजनों की नहीं है। दो सौ वर्ष हुए तिजारत पर पश्चिमी नाविक, जिनमें समुद्री लुटेरे ज्यादा थे, चीन आये। औपनिवेशक वित्त-दर्शन तभी अंकुरित हुआ था कि एशिया-अफ्रीकी राष्ट्र कच्ची धातु मुहैया करें और ब्रिटेन में तैयार हुई वस्तुएं खरीदें। नानकिंग की सन्धि से 1842 में हांगकांग पर कब्जा कर साम्राज्यवादियों की आसक्ति बढ़ीं, मगर एक दुर्बलता का हर उपनिवेशवादी वर्ग शिकार हुआ। बदलते सन्दर्भ और नये युग की मांग तथा मान्यताओं के प्रति उसकी बेरूखी रही। उसकी अन्धी जिद और झूठी मर्यादा ने उसकी कब्र तैयार की। ब्रिटेन ने हांगकांग में लोकतान्त्रिक संस्थाओं को पनपने नहीं दिया। नामजद शासकीय परिषद के जरिये हुकूमत चलती रही। दो सदियों के दौरान हांगकांग में बस एक ही निर्वाचित नागरिक सभा बनी, जो खेल के मैदान और मलबे की सफाई पर बहस मात्र कर सकती है। राजस्व, नये कानून और उद्योग नीति लन्दन में तय होते है। जन मानस की ऐसी उपेक्षा का अंजाम बस एक होता हैः स्थिति आन्दोलन का रूप लेती है। फिर हिंसा उपजती है, जिसमें शासकों की कपालक्रिया भी होती है। बिना बुलाये कोई आये, इशारे पर भी न जाये, तो लदवाकर भिजवाने में ही उपाय दिखता है। हांगकांग में ब्रिटेन की ऐसी ही नौबत आ रही है।
भारतीय के लिए हांगकांग में रूचि यही है कि यदि वह ब्रिटिश राज से मुक्त हो, तो चीन का गुलाम भी न बने। निकिता खुष्चेव ने एक बार पूछा था कि दक्षिणी मुहाने से उठती दासता की इस बू को नव चीन कब तक सहेगा? मगर बीजिंग के क्रान्तिकारी नेताओं को इस बू में कोई बुराई नहीं दिखती, वरना बौद्ध तिब्बत को सेना के बूते ”मुक्त” कराने वाले चीन को हांगकांग में रानी एलिजाबेथ की सत्ता गवारा क्यों होती? परन्तु आजादी की अभिलाषिणी हांगकांग की तीस लाख मध्यवर्गीय जनता और मजदूरों का क्या होगा? व्यक्ति की गरिमा और अभिव्यक्त्वि की स्वतन्त्रता का अंग्रेजी शस्त्र दमन करता रहा है। अधिनायक तन्त्री चीन की प्रजा स्वयं स्वाधीन नहीं हैं। दो हेय सत्ताओं के बीच फंसी हांगकांग की जनता सतत संघर्ष से ही अलग राष्ट्र के रोल में विश्वमंच पर आ पायेगी। ब्रिटेन की दुकानदारी प्रवृत्ति हांगकांग के बहुमूल्य बन्दरगाह को खोना बर्दाश्त करेगी? विस्तारवादी चीन तब हाथ पर हाथ धरे रहेगा, या अपना हाथ इस टापू को हड़पने के लिए बढ़ायेगा?
बॉयला नामक झंझावात हांगकांग में उठा करता है, जिससे कभी-कभी बर्तानी जहाज पर लगे यूनियन जैक झण्डे उड़ जाते हैं, और अक्सर सरहद पर चीनी सैनिक तम्बू भी उखड़ जाते हैं। हांगकांग के लोग बॉयला बन जायें तो उनकी जद्दोजहद में गति आये। शायद मुक्ति भी उन्हें तभी मिल जाये!
(वरिष्ठ पत्रकार के विक्रम राव के फेसबुक वॉल से)