सर्वेश तिवारी श्रीमुख
वस्तुतः प्रेमचंद उस युग के कथाकार थे जब लेखक केवल लिखता था, एजेंडाबाजी नहीं करता था। प्रेमचंद और संजय सहाय दोनों में एक समानता है कि दोनों ने हंस पत्रिका का सम्पादन किया है। और दोनों में एक अंतर भी है कि प्रेमचंद उस पीढ़ी के लेखक हैं जब लेखन धर्म हुआ करता था, और संजय उस पीढ़ी के हैं जिनके लिए लेखन धंधा था/है।
संजय ने प्रेमचंद को स्त्रीविरोधी बताते हुए उनके लेखन को कूड़ा कहा है। मुझे लगता है संजय ने प्रेमचंद को मुझसे अधिक नहीं पढ़ा होगा। और मैं पूरे दावे के साथ कहता हूँ कि प्रेमचंद की रचनाओं में स्त्री जितनी मुखर दिखी है, उतनी संजय की पीढ़ी के किसी लेखक की रचना में नहीं दिखी।
एक मुक्त स्त्री के जिस स्वरूप को संजय की पीढ़ी आदर्श मानती है, उसकी कल्पना आज से लगभग नब्बे वर्ष पूर्व प्रेमचंद ने गोदान की मिस मालती के रूप में की थी। क्या चरित्र गढ़ा था उन्होंने… अपने युग की तमाम चुनौतियों का सभ्य तरीके से उत्तर दे कर अपने मन से स्वतंत्र जीवन जीते हुए युग की पीड़ा से लड़ती डॉक्टर मालती तब ही नहीं अब भी आदर्श है।
उनके एक दूसरे उपन्यास गबन की नायिका जालपा, जो प्रारम्भ में गहनों के लिए मचलती हुई बच्ची है, वह उपन्यास के मध्य तक आते आते तरह एक बड़ी भीड़ का नेतृत्व करती हुई सरकार से लड़ती और जीतती है। जालपा के रूप में एक घरेलू महिला को जननायिका के स्वरूप तक पहुँचाना प्रेमचंद की कलम का कमाल है।
उनके एक और उपन्यास रंगभूमि की नायिका है सोफिया। लड़कियां किस तरह स्वतंत्र हो कर निर्णय ले सकती हैं, सोफिया इसकी सुंदरतम उदाहरण है।
प्रेमचंद के पहले ही उपन्यास सेवासदन की अनपढ़ नायिका शांता ट्रेन के डब्बे में एक विदेशी महिला को विवाह के मुद्दे पर जिस तरह उत्तर देती है, वह शांता और लेखक की कलम दोनों पर श्रद्धा उतपन्न करती है।
दरअसल प्रेमचंद का युग दासता का युग था, जब भारत की आम जनता अंग्रेजों की गुलामी से त्रस्त हो कर प्रतिरोध का तेज स्वर उठाने लगी थी। वैसे समय में प्रेमचंद की हर नायिका सरकारी जुल्म और सामाजिक कुरीतियों का मुखर विरोध करती दिखती है। निर्मला, सुमन, झुनिया, धनिया, जालपा, ये सारे चरित्र सशक्त स्त्रियों के हैं। ये विपरीत परिस्थियों के लिए किसी को गुनाहगार ठहराते हुए छाती पीट कर रोती नहीं हैं, बल्कि परिस्थितियों से लड़ कर उनपर विजय पाती हैं। यही प्रेमचंद की भी जीत है।
दरअसल प्रेमचन्द के नारीवाद और आधुनिक नारीवाद में मूल अंतर यही है कि प्रेमचन्द की नायिकाएं लड़ कर जीतती थीं, और आधुनिक नारीवादी लेखकों की नायिकाएं केवल पुरुषों को गाली देती हैं।
प्रेमचन्द का लेखन हिन्दी साहित्य का सबसे महत्वपूर्ण भाग है। उनका लेखन इतना समृद्ध है कि आने वाले सैकड़ों वर्षों तक भी कोई उसे अनदेखा नहीं कर सकेगा। उसपर चर्चाएं होंगी, प्रतिरोध का खेल खेला जाएगा, पर कोई उसे इग्नोर नहीं कर सकेगा।
जिस लेखक ने आज प्रेमचन्द के लेखन को कूड़ा कहा है, उनकी किसी भी पुस्तक की हजार प्रतियां नहीं बिकीं, पर प्रेमचन्द आज भी सबसे अधिक पढ़े जाने वाले साहित्यकार हैं।
संजय सहाय पाठकों की कमी पर झल्लाये कुछ फर्जी साहित्यकारों का प्रतिनिधित्व करते हैं। उनका दुर्भाग्य यह है कि उन्हें इस झल्लाहट के साथ ही जीना होगा।