नई दिल्ली। राजधानी दिल्ली में हुए हिन्दू-विरोधी दंगों को रोका जा सकता था, अगर फेसबुक ने सही समय पर दंगों को भड़काने वाले कंटेंट को रोका होता। यह दावा फेसबुक के पूर्व कर्मचारी मार्क एस लकी ने दिल्ली विधानसभा की शांति और सद्भाव समिति के सामने किया है। उन्होंने बताया कि कई बार वरिष्ठ अधिकारियों द्वारा राजनीतिक दलों के इशारों पर कंटेंट मॉडरेशन टीम पर दबाव बनाया जाता है। इसके चलते कई बार फेसबुक को अपने ही कम्युनिटी स्टैंडर्ड से समझौता करना पड़ता है। उल्लेखनीय है कि फेसबुक पर पहले भी दक्षिणपंथ के प्रति पूर्वग्रह रखने के आरोप लगते रहे हैं।
दिल्ली विधानसभा की इस कमेटी के अध्यक्ष विधायक राघव चड्ढा हैं। समिति ने गुरुवार (नवम्बर 12, 2020) को फेसबुक के अधिकारियों के खिलाफ नफरत फैलाने वाली सामग्री को जानबूझकर नजरअंदाज करने से संबंधित शिकायतों की सुनवाई करते हुए एक बैठक बुलाई थी। दरअसल समिति का मानना है कि दिल्ली दंगों को भड़काने में फेसबुक का भी बहुत बड़ा हाथ था।
बैठक के दौरान पूर्व कर्मचारी लकी ने फेसबुक के पॉलिसी हेड समेत कई वरिष्ठ अधिकारियों पर राजनीतिक दलों के इशारे पर काम करने के आरोप लगाए। लकी ने अपने बयान में कहा कि अगर समय रहने फेसबुक पर दिल्ली में दंगे भड़काने वाले कंटेंट को रोका गया होता जो शायद इतनी बड़ी घटना नहीं होती। इसके अलावा उन्होंने यह भी कहा कि अगर फेसबुक ने सही समय पर कार्रवाई की होती तो म्यांमार जनसंहार और श्रीलंका में हुए दंगों को आसानी से रोका जा सकता था।
लकी ने राजनीतिक पार्टियों और फेसबुक के बीच के कनेक्शन के बारे में खुलासा करते हुए यह भी बयान दिया कि फेसबुक के पॉलिसी हेड समेत कई वरिष्ठ अधिकारियों द्वारा राजनीतिक दलों के इशारे पर कंटेंट मॉडरेशन टीम पर दबाव बनाया जाता है। इसके अलावा फेसबुक के वरिष्ठ अधिकारी और क्षेत्रीय प्रमुख उन देशों में राजनीतिक दलों से दोस्ती बनाकर रखते हैं, जहाँ फेसबुक को काफी ग्राहक हैं। इस सब की वजह से कई बार फेसबुक को अपने ही कम्युनिटी स्टैंडर्ड से समझौता करना पड़ता है। जिसका फायदा भी होता है और नुकसान भी झेलना पड़ता है। साथ ही उन्होंने कहा कि फेसबुक कंटेंट मॉडरेशन के संबंध में ऐसी नीतियां बना रहा है, जो पारदर्शी नहीं हैं।
बिज़नेस के सिलसिले को उजागर करते हुए मार्क ने बताया कि फेसबुक के लिए भारत के बाद अमेरिका दूसरा सबसे बड़ा बाजार है। लेकिन भारत को इसका कोई खास फायदा नहीं मिलता। क्योंकि फेसबुक भारत में अमेरिका जितना संसाधन खर्च नहीं करता है, जिससे भारत को अपेक्षाकृत नुकसान है। फेसबुक के दिशानिर्देशों पर जोर देते हुए उन्होंने कहा कि अगर अधिकारी कंपनी के कर्मचारियों को वास्तविक गाइडलाइंस के मुताबिक काम करने दें तो समाज में ज्यादा शांति और सद्भाव रहेगा।
लेकिन ऐसी बातों को सत्य मानना अनुचित
हालाँकि, इस तरह के दावे पहले भी होते रहे हैं और कौन सा राजनीतिक दल क्या दवाब बनाता है, वह बात कभी भी सामने नहीं आती। फेसबुक पर गैरवामपंथी पार्टियों ने अगर वामपंथियों के साथ होने का आरोप लगाया है, तो वहीं कॉन्ग्रेस समेत वामपंथी पार्टियों ने उस पर अपने समर्थकों के पेज डिलीट करने के भी आरोप लगाए हैं।
मूल बात यह है कि ऐसी स्थिति में किसी पूर्व कर्मचारी की बात को सत्य मान लेना जल्दबाजी होगी क्योंकि ऐसी बातों का सत्यापन लगभग असंभव है। न कोई नाम बताए जाते हैं, न कोई खास उदाहरण, सिर्फ गोल-गोल बातें घुमाने से सत्य कहीं पीछे रह जाता है।