के पी सिंह
अखिलेश यादव राज्यसभा चुनाव में अपनी पार्टी की फजीहत बचाने के लिए राजा भैया की शरण में जाने को मजबूर हो गये हैं। उन्होंने पहले खुद राजा भैया को फोन किया और इसके बाद समाजवादी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष नरेश उत्तम को अपने दूत के रूप मंे उनके पास भेजा। राजा भैया को भी फिलहाल भाजपा में ठौर नहीं मिल पा रहा इसलिए पुराने गिले शिकवे भूलकर उन्होंने सपा को हाथों हाथ लिया है।
2022 में जब विधानसभा चुनाव हो रहे थे अखिलेश यादव कुण्डा में राजा भैया की हेकड़ी निकालने पर आमादा थे। एक जमाने में राजा भैया के कारिंदे बनकर रहने वाले गुलशन यादव को उन्होंने कुण्डा में अपनी पार्टी का उम्मीदवार बनाया था और वहां के लोगों से कहा था कि वे गुलशन यादव को जिताकर राजा भैया के लिए कुण्डा की कुंदी हमेशा के लिए बंद कर दें। राजा भैया ने भी तुर्की व तुर्की जबाव दिये थे और दोनों के बीच तल्खी चरम पर पहुंच गई थी। यह दूसरी बात है कि कुण्डा की सामंतशाही के विरोध में महात्मा बन रहे अखिलेश यादव यह भूल गये थे कि संकट के दिनों में राजा भैया को पोषने वाली पार्टी उन्हीं की थी। यहां तक कि राजा भैया को उन्होंने अपनी मंत्रिमंडल में वरिष्ठ सदस्य के रूप में सुशोभित रखा था।
समाजवादी पार्टी की फितरत ही कुछ ऐसी रही है कि वह किसी कौल फैल पर टिकने की साख नहीं बना पायी। राजा भैया और उनके पिता का नाम दिलदार नगर के बहुचर्चित कांड से जुड़ा है जिसमें छह मुसलमानों का जिंदा दहन हुआ था। मुलायम सिंह यादव मुसलमानों के मसीहा होने दम भरकर उनके एकजुट समर्थन को हथियाने में कामयाब हुए तभी उन्हें प्रदेश की सत्ता में शीर्ष पर पहुंचने में कामयाबी मिली थी लेकिन सामंतवाद से मान्यता हासिल करने की ललक भी उनमें इतनी थी कि राजा भैया को संरक्षण देने के पहले उन्होंने मुसलमानों की ओर देखना गंवारा नहीं किया।
राजा भैया के सामंतवाद की जकड़न से यादव भी अछूते नहीं रहे। इस एहसास के कारण ही जब राजा भैया समाजवादी पार्टी में थे तो अखिलेश यादव उनसे इतनी एलर्जी दिखाते थे। अखिलेश यादव इन दिनों पीडीए के लिए सरफरोशी की तमन्ना हमारे दिल में है जैसे तेबर दिखा रहे लेकिन किसी प्रतिबद्धता का निर्वाह करने के लिए जिस कटिबद्धता को धारण करने की जरूरत होती है उसमें अखिलेश यादव के इरादे बहुत कच्चे हैं।
राजा भैया का पूरा परिवार कट्टर हिन्दुत्ववादी है, मुसलमानों के लिए इस मामले में हिंसक और बर्बर होने की हद तक। इसलिए उनकी दिली नजदीकी तो शुरू से भाजपा के साथ है लेकिन मायावती के शासन में जब उनके अस्तित्व पर बन आयी थी तो अमर सिंह के मार्फत मुलायम सिंह यादव ने उनके लिए उद्दारकर्ता बनने का जिम्मा अपने सर ले लिया था जिससे राजा भैया का उनके प्रति अत्यंत कृतज्ञ हो जाना स्वाभाविक रहा। पर जब अखिलेश के हाथ के बागडोर आयी और वे राजा भैया को दुत्कारने लगे तो राजा भैया वैसे भी पाला बदल के लिए तत्पर हो गये। उस पर तुर्रा यह कि उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री बन गये जो क्षत्रिय भी हैं और हिन्दुत्व के कट्टर पुरौधा भी तो उनके लिए लहू पुकारेगा जैसा मंजर आ बना।
लेकिन योगी भाजपा में खुद मुख्तार नहीं हैं। पार्टी का हाई कमान उन्हें कृपा पात्र मुख्यमंत्री समझता है और इसी हैसियत में रखने की कोशिश करता है। क्षत्रित्व के लिए योगी की उमंग पर इसके चलते भाजपा हाई कमान ने ठंडा पानी डाल दिया। उन्हें राजा भैया को मनमाने तरीके से कृतार्थ करने से बरज दिया गया। यशवंत सिंह पर वे बड़े कृपालु हो गये थे और उन्हें माध्यम बनाकर भाजपा के पितृ पुरूषों की तुलना में पूर्व प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर की अभ्यर्थना में उन्हें अधिक रास आता था इस पर भी लगाम लगाई गई। योगी को समझा दिया गया कि पार्टी लाइन पर चलें न कि अपनी अलग लाइन दिखाने की कोशिश करें। सामाजिक मामलों में मोदी की नीति बहुजन का मोह मोहने की है जिसमें दलित और पिछड़े आते हैं। जबकि पहले योगी के क्षत्रित्व युक्त अहंकार के कारण उनका इन वर्गों के प्रति उपेक्षा भाव झलकने लगता था।
इस तरह राजा भैया को जब योगी के संरक्षण में निश्चिंत रहने में दुविधा दिखायी दी तो उन्होंने अपनी अलग राह बना ली। उनके द्वारा जनसत्ता दल का गठन इसी का परिणाम है। उनका जनसत्ता दल आरक्षण का विरोध करता है जबकि अखिलेश यादव पीडीए का राग अलापकर चाहते हैं कि पिछड़ों की सत्ता के केन्द्रों में भागीदारी बढ़ाने के लिए आरक्षण का दायरा और बढ़ाया जाये। इस तरह सैद्धांतिक धरातल पर उनका और राजा भैया का साथ कैर बैर का है लेकिन समाजवादी पार्टी का उद्देश्य शुरू से किसी परिवर्तन की लड़ाई लड़ना नहीं सत्ता हथियाना है इसलिए चाहे वह मुलायम सिंह रहे हों या अब अखिलेश यादव कोई भी खरी नीयत का परिचय राजनैतिक तौर पर देने में असमर्थ रहे हैं।
राज्यसभा चुनाव में उनके विरोधाभास खूब उजागर हो रहे हैं। उत्तर प्रदेश से राज्यसभा के 10 स्थान रिक्त हुए थे। विधायकों की संख्या के हिसाब से इनमें से 07 पर भाजपा के उम्मीदवार सफल हो जाते और 03 पर सपा के। लेकिन सपा ने उम्मीदवारो के चयन में पीडीए का ध्यान नहीं रखा। उन्होंने दो उम्मीदवार जनरल कास्ट से तय कर दिये जबकि एक उम्मीदवार रामजीलाल सुमन हैं। इसको लेकर पार्टी में विद्रोह के स्वर फूट पड़े। स्वामी प्रसाद मौर्य और पल्लवी पटेल इसे पीडीए के नारे के साथ विश्वासघात बताते हुए अखिलेश यादव पर हमलावर हो गये। बाद में इस कड़ी में सलीम शेरवानी का नाम भी जुड़ गया।
सपा में हो रही इस उथल पुथल की खबर भाजपा को पहले ही लग गई तो भाजपा ने अपने अतिरिक्त मतों का सदुपयोग करने के लिए एक और उम्मीदवार संजय सेठ को सपा के लिए भस्मासुर बनाकर मैदान में उतार दिया क्योंकि पहले वे समाजवादी पार्टी में ही शामिल थे। संजय सेठ बड़े बिल्डर हैं। समाजवादी पार्टी बात तो करती है वंचित, शोषित और मेहनतकश तबके की लेकिन विधायी संस्थाओं में अपने कंधे पर चढ़ाकर ग्लैमर की दुनिया के लोगांे, उद्योगपतियों और सामंती तत्वों को दाखिल कराने की भूमिका निभाती है। चूकि संजय सेठ बिल्डर हैं इसलिए उन्हें अपना कारोबार चलाने और आगे बढ़ाने को सत्ता के सहारे की जरूरत है। आज सपा सत्ता से बाहर है तो सपा से मोह बनाये रखने में उन्हें कोई समझदारी नहीं दिखायी दी सो वे भाजपा में आ गये हैं। थैली से मजबूत हैं जिसे खोलकर सपा के कितने ही विधायक अपनी झोली में खींच ले जायें इसका ठिकाना नहीं है। इज्जत बचाने के लिए सपा को दूसरों के दरवाजे पर भटकना पड़ रहा है। राजा भैया से विनती के लिए पहुंचना इसी की मिसाल है।
विद्रोही अखिलेश यादव को बेनकाब करने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते। अखिलेश ने तीन उम्मीदवारों के बीच में वोटों का बंटवारा इस तरह किया है जिससे जया बच्चन और आलोक रंजन तो चुनाव के लिए निरापद हैं लेकिन दलित उम्मीदवार रामजी लाल सुमन के लिए जोखिम है। अगर रामजी लाल सुमन हार गये तो अखिलेश पीडीए को निभाने के मोर्चे पर बेईमान साबित हो जायेंगे। अब जया बच्चन का प्रोफाइल जान लीजिए। उनके परिवार से समाजवादी पार्टी को सिर्फ इसलिए प्यार है कि उनके पति अमिताभ बच्चन की कांग्रेस की राजनीति में विश्वनाथ प्रताप सिंह से जबरदस्त अदावत थी और मुलायम सिंह यादव जनता दल में रहते हुए भी अपनी ही पार्टी की लुटिया डुबोने की कीमत पर हर उस शख्स को गले लगाने को आतुर हो जाते थे जो विश्वनाथ प्रताप सिंह से शत्रुता रखता हो। अमिताभ बच्चन पर भी वे इसीलिए मेहरबान थे जबकि मुलायम सिंह एक पहलवान थे और एक पहलवान को फिल्मी हस्ती से क्या लगाव। जया बच्चन को समाजवादी पार्टी आज भी इसी कारण कृतार्थ कर रही है जबकि वे राज्यसभा में पहुंचकर पीडीए को बल देने वाले कोई भाषण करेंगी इसकी कोई आशा नहीं है।
आज जिस भाजपा से मुकाबला है वह सिद्धांतों के मामले में बहुत कट्टर है। उसने अनुच्छेद 370 हटाकर, अयोध्या में विवादित स्थान पर राम मंदिर बनाकर और मुसलमानों को द्वोयम दर्जे के नागरिक की हैसियत में धकेलकर इसका परिचय दे दिया है। हिन्दुत्व की मान्यतायें, कर्मकांड और परंपरायें आज जैसे राजकीय दर्जा प्राप्त बना दी गई हों। इनके मुकाबले अगर कोई दूसरी धारा है जिसके लिए डटकर काम करने वाले सामने आयें तो भाजपा से मुकाबला हो सकता है अन्यथा नहीं। राहुल गांधी वैकल्पिक नीतियों और प्रतिबद्धताओं के लिए ईमानदारी से संघर्ष कर रहे हैं जिससे अखिलेश की तुलना में उनकी साख हाल के समय मे मजबूत हुई है। अगर वे लंबे संघर्ष के लिए तैयार हैं तो एक दिन सफलता उन्हें मिल सकती है अखिलेश जैसे नेताओं को नहीं।
विश्लेषक केपी सिंह यूपी के जिला जालौन के निवासी हैं.