डॉ राजाराम त्रिपाठी
इन दिनों देश के किसान फिर आंदोलित है, दिल्ली की देहरी पर हैं। इससे पहले अभी हाल में ही देश ने एक बड़ा व्यापक किसान आंदोलन भी देखा है। लेकिन यदि गौर से देखा जाए तो आजादी के बाद से ही अलग-अलग समस्याओं को लेकर स्थानीय स्तर पर किसान लगातार आंदोलनरत रहे हैं। बिजली, पानी, खाद, बीज, परिवहन, गोदाम और बाजार की अलग-अलग क्षेत्र में अलग-अलग समस्याएं रही हैं। छुटपुट स्तर पर इन्हें अस्थाई तौर पर सुलझाने के प्रयास भी हुए पर रोग बढ़ता ही गया ज्यों ज्यों दवा की। इन समस्याओं के स्थाई समाधान हेतु कोई दूरगामी नीति आज पर्यंत नहीं बन पाई जो की बेहद जरूरी थी।
पिछले आंदोलन की अगर बात करें तो इसके जड़ में सरकार के वह तीनों विवादास्पद कानून थे, जिसे सरकार दे बिना किसान संगठनों और किसानों से चर्चा किये, बिना उन्हें विश्वास में लिए ही किसानों की भलाई के नाम पर किसानों पर थोप दिया था। अंधे को भी दिख रहा था कि तीनों कानून कॉर्पोरेट के पक्ष में गढ़े गए थे। परंतु कॉरपोरेट्स प्रेम हिंडोले पर झूल रही सरकार ने किसानों को निरा ही बेवकूफ समझ लिया। किंतु इन तीनों कानून की गाज जब किसानों पर गिरी और उन्हें उनकी जमीन हाथ से निकलती नजर आई तो किसान अपनी तत्कालीन सभी छोटी बड़ी समस्याओं को किनारे रखकर अपने खेत, खेती बचाने सड़क पर उतर आए। आखिरकार जब तीनों कानून वापस हुए और आंदोलन वापस हुआ तो किसानों के हाथ एक बार फिर खाली के खाली थे। हाथ में था केवल एमएससी गारंटी कानून लागू करने का आश्वासन का झुनझुना। जैसे ही सरकार ने अपने चुनिंदा तनखैया नुमाइंदों की एक नौटंकी एमएसपी गारंटी कमेटी बनाई, यह बिल्कुल साफ हो गया कि सरकार की नीयत किसानों को ‘एमएसपी गारंटी’ देने की नहीं है।
सरकार के इस धोखे और वादाखिलाफी ने पहले ही से ही सुलग रहे किसान आक्रोश की आग में घी का काम किया है। ऐसी हालत में किसान आक्रोश के तवे पर राजनीतिक रोटी सेंकने वाले वाले कोढ़ में खाज का काम करते रहे हैं और इससे समस्या और उलझ जाती है। कुल मिलाकर यह स्थिति किसानों के साथ ही सरकार तथा देश के लिए भी उचित नहीं है। ऐसे में जरूरी हो जाता है कि इस समस्या का हल ढूंढने के लिए इसकी जड़ों की तहकीकात के साथ ही इस संदर्भ में उठने वाले कुछ प्रमुख सवालों के ईमानदार जवाब ढूंढे जाएं।
सरकार का फसल लागत पर 50% लाभ जोड़कर एमएसपी तय करने/देने का दावा कितना सही है?:
सरकार का यह दावा पूरी तरह से झूठ और गलत आंकड़ों पर आधारित है।एमएसपी तय करने में सबसे महत्वपूर्ण आंकड़ा फसल लागत का होता है। इसमे एमएस स्वामीनाथन की अनुशंसा के अनुसार C2+FL की मांग किसानों द्वारा की जाती रही है। फसल लागत में जब तक किसान व उसके परिवार की मजदूरी वर्तमान कुशल मजदूर की तय दर से जोड़ी जाए, मजदूरों का वास्तविक भुगतान, बैलों के मूल्य तथा उनके भोजन एवं रखरखाव का व्यय, ट्रैक्टर, पावर टिलर, मोटरसाइकिल आदि का संचालन व्यय,भूमि के लीज का भुगतान , बीज, उर्वरक, खाद, सिंचाई शुल्क एवं ट्रैक्टर,ड्रिप ,सिंचाई पंप आदि सभी कृषि उपकरणों एवं कृषि भवनों पर वार्षिक मूल्यह्रास की गणना, कार्यशील पूंजी पर ब्याज आदि को वर्तमान बाजार मूल्य के आधार पर नहीं जोड़ा जाता, तब तक खेती की लागत की गणना सही नहीं मानी जा सकती। हालत यह है कि डीजल की बढ़ी कीमतों के कारण ट्रैक्टर की जुताई के खर्चे में लगभग 20% की वृद्धि हो गई मजदूरी में लगभग 25% की वृद्धि हो गई। खाद बीज दवाई में 20 से 25% की वृद्धि देखी जा रही है।
ऐसी हालत में जब फसल लागत में 20 से 25% वृद्धि हो रही है तब सरकार की एमएसपी में अधिकतम 1% से 6% तक की जाने वाली सालाना वृद्धि से किसान लाभ की बजाय उल्टा घाटा हो रहा है। किसान को लागत पर 50% फायदा मिलने के बजाय लागत 15 से 20% घाटा हो रहा है। यही कारण है कि किसान की कमर टूट गई है।
एमएसपी नहीं मिलने से किसान को कितना नुकसान है?
इस संदर्भ में सरकार की ही शांता कुमार कमेटी का कहना है कि, अभी केवल 6% उत्पादन ही एमएसपी पर खरीदा जाता है, बाकी 94% किसानों का उत्पादन एमएसपी से भी कम रेट पर बिकता है, जिसके कारण किसानों को हर साल लगभग 7 लाख करोड़ का नुकसान होता है । हर साल किसानों को मिलने वाली सभी प्रकार की सब्सिडी को अलग कर दिया जाए तो भी, देश भर के किसानों को लगभग 5 लाख करोड़ का घाटा हर साल सहना पड़ रहा है. इन हालातों में खेती और किसानी कैसे बचेगी यह सरकार तथा उसके नीति निर्माताओं के लिए भी सोचने का विषय है.
एमएसपी पर खरीद में सरकार और बाजार की भूमिका?
एक सवाल उठाया जाता है की भला सरकार किसानों का सारा माल भला कैसे खरीद सकती है ? और सरकार व्यापारियों को भी किसानों का माल खरीदने के लिए कैसे बाध्य कर सकती है?
सौ बात की एक बात यह है हम किसान तो यह कहते ही नहीं कि किसानों का ‘एक-दाना’ भी सरकार हम किसानों से खरीदे। हमारा सरकार से कहना साफ है कि आप तो बस किसानों के साथ बैठकर खेती पर होने वाले सभी वाजिब खर्चों को जोड़कर समुचित ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ तय कर दें और उससे कम पर की जाने वाली किसी भी खरीदी को गैर कानूनी घोषित करते हुए उसके लिए समुचित सजा के प्रावधान का कानून पारित कर दें। वर्तमान में सरकार डीजल पेट्रोल का रेट तय कर ही रही है। जमीन की खरीदी बिक्री का भी मूल्य स्टांप ड्यूटी हेतु सरकार ही तय करती है। गन्ने का मूल्य तो कितने ही सालों से सरकार तय कर ही रही है। बाजार को भी खरीदी हेतु बाध्य करने की जरूरत नहीं है। साथ ही आयात नीति में जिस तरह देश की अन्य जरूरी वस्तुओं को आयात संरक्षण दिया जाता है वैसे ही कृषि उत्पादों को भी सस्ते आयात से आवश्यकतानुसार जरूरी संरक्षण दिया जाए। बस सरकार को इतना ही तो करना है। वैसे भी खरीदी-बिक्री का कार्य तथा विशेष परिस्थितियों के अलावा अनाजों की खरीदी करके वोट के लिए उसे मुफ्त बांटना किसी सरकार का काम नहीं होना चाहिए।
क्या ‘एसपी गारंटी कानून’ से सरकारी खजाने पर बोझ बढ़ेगा?
जी बिल्कुल नहीं! सरकार के खजाने पर ₹1 अतिरिक्त बोझ नहीं पड़ने वाला। यह जानबूझकर फैलाया जाने वाला निरर्थक भ्रम है। सरकार तो वैसे भी जो भी अनाज सरकारी योजनाओं में वितरण हेतु किसानों से खरीदनी है वह न्यूनतम समर्थन मूल्य पर ही खरीदनी है, इसलिए सरकारी खजाने पर बोझ बढ़ने का सवाल ही नहीं उठता। सरकार को तो बस एक छोटा सा कानून बनाना है, जिसमें सरकार का एक पैसा खर्च नहीं होने वाला। वैसे भी यह सरकार बिना जनता के मांगे ही सैकड़ों नये नये कानून बनाने के लिए जानी जाती है, तो फिर किसानों की जायज मांग पर एक कानून और सही।
क्या इससे बाजार और व्यापारी को नुकसान होगा?
जी बिल्कुल नहीं! व्यापारी न्यूनतम समर्थन मूल्य के आधार पर उससे ऊपर की दर पर खरीदी करेंगे और अपना वाजिब लाभ जोड़कर आगे उपभोक्ताओं को बेचेंगे। किसान अपना पैसा बैंक में नहीं रखता इसलिए किसान को मिला पैसा तत्काल वापस बाजार में आ जाएगा जिससे क्रियाशील पूंजी तथा बाजार की गति को और तेजी मिलेगी, देश के विकास दर में तीव्रता आएगी।
क्या इससे अंतिम उपभोक्ता को नुकसान होगा?
जी बिल्कुल नहीं, बल्कि उल्टे इससे उपभोक्ताओं का भी अनावश्यक शोषण बचेगा। जरा उदाहरण देखें, बाजार में किसानों का गेहूं ₹16 किलो बिका है और उपभोक्ताओं को ₹40 किलो आटा खरीदना पड़ रहा है। अर्थात बाजार की ताकतें एमएसपी से कम दर पर खरीदी कर किसानों का शोषण करने के साथ ही साथ लगभग 100% फायदा लेकर उपभोक्ताओं की भी जेब काट रही हैं। एक और उदाहरण गन्ना भी सरकार नहीं खरीदती पर चीनी मिलों की खरीदी के लिए उसका रेट उसने तय कर दिया है तो इससे उपभोक्ताओं को लगातार चीनी वाजिब मूल्य पर मिल रही है। न्यूनतम समर्थन मूल्य के साथ ही कृषि उत्पादों तथा उनसे तैयार उत्पादों की अधिकतम विक्रय मूल्य भी तय कर दिए जाएंगे तो उपभोक्ताओं को जबरदस्त राहत मिलेगी।
क्या यह समस्या सचमुच में बहुत जटिल है? :
जी बिल्कुल नहीं! इस समस्या का हल ढूंढने कहीं दूर जाने की भी जरूरत नहीं है, क्योंकि वह तो पहले ही मौजूद है। बस सरकार और किसान दोनों के द्वारा इसे जीत हार का प्रश्न न बनाया जाए और सरकार अपना अब तक के अपने गैरजरूरी अड़ियल, दमनकारी अलोकतांत्रिक रुख तत्काल तत्काल छोड़कर, दिमाग के जाले साफ कर देश के सभी किसान संगठनों के साथ मिल बैठकर एक ऐसा सकारात्मक हल बड़े आराम से निकाल सकती है, जिसमें किसानों को उनकी लागत और मेहनत की वाजिद कीमत मिले, व्यापारियों को भी वाजिब मुनाफा के साथ खुला बाजार मिले तथा उपभोक्ताओं को भी वाजिब मूल्य पर कृषि उत्पाद मिलें। उसके साथ ही किसानों की अन्य लंबित समस्याएं भी मिल बैठकर बड़े आराम से सुलझाई जा सकती है। ऐसी किसी भी सकारात्मक पहल को अखिल भारतीय किसान महासंघ (आईफा 45 किसान संगठनों का महासंघ) , राष्ट्रीय एमएसपी गारंटी किसान मोर्चा (223 किसान संगठन) तथा अन्य सकारात्मक किसान संगठनों का पूरा साथ व समर्थन मिलेगा।