के विक्रम राव
अंतर्राष्ट्रीय सीमा को अमृतसर से अम्बाला तक धकेलने के साजिशकर्ता खालिस्तानियों को मात देनेवाले, उजबेकी लुटेरे जहीरुद्दीन बाबर के अतिक्रमण से अयोध्या को मुक्त कराने में सहायक बने, अर्थतंत्र को बाबुओं के शिकंजे से आजाद कराने वाले पीवी नरसिम्हा राव की आज (28 जून) 98वीं जयंती है| गमनीय है कि पाँच वर्ष तक अल्पमतवाली कांग्रेस सरकार को चलानेवाले नरसिम्हा राव ने दस जनपथ के इशारे पर थिरकने से इनकार कर दिया था| हालांकि सरदार मनमोहन सिंह सोनिया गांधी की उँगलियों पर दस वर्ष तक भांगड़ा करते रहे| ऐसे इतिहास-पुरुष के जन्मोत्सव से पार्टी मुखिया राहुल गांधी को कोई सरोकार भी नहीं है| विडम्बना तो यह थी कि उनके सगे काका (संजय गांधी) जो कभी भी किसी भी राजपद पर नहीं रहे, की समाधि राजघाट परिसर में बनी| केवल पांच महीने रहे प्रधान मंत्री, जो लोकसभा में बैठे ही नहीं, (चरण सिंह) के लिये किसान घाट बन गया| सात माह राजीव–कांग्रेस की बैसाखी पर प्रधान मंत्री पद कब्जियाये ठाकुर चंद्रशेखर सिंह का भी एकता स्थल पर अंतिम संस्कार किया गया| मगर सम्पूर्ण पांच साल की अवधि तक प्रधानमंत्री रहे पीवी नरसिम्हा राव का शव सोनिया गांधी ने सीधे हैदराबाद रवाना करा दिया था| दिल्ली में उनके नाम कोई स्मारक नहीं, कोई गली नहीं|
कल्पना कीजिए कि ताशकन्द में अकाल मृत्यु (1966) और लोकसभाई चुनाव (1996) में कांग्रेस की पराजय न होती तो लाल बहादुर शास्त्री और नरसिम्हा राव पार्टी की दिशा बदल देते। तब नेहरू परिवार बस एक याद मात्र रह जाता। इतिहास का मात्र एक फुटनोट।
सोनिया गांधी और उनकी पार्टी ने नरसिम्हा राव के साथ जो व्यवहार किया है वह राजनेता अपने घोर शत्रु के साथ भी नहीं कर सकता है। सोनिया की सोच को प्रतिबिंबित करती एक घटना पर बने अखबारी कार्टून का जिक्र समीचीन होगा। उस कार्टून में दिखाया गया था कि ग्रामीण रोजगार योजना (नरेगा) का नाम मनरेगा क्यों कर दिया गया। मनमोहन सिंह सरकार को आशंका हुई होगी कि एन.आर.ई.जी.ए. कही नरसिम्हा राव इम्प्लायमेन्ट गारन्टी योजना न कहलाने लग जाए। अतः महात्मा गांधी का नाम जोड़ दिया गया। मजाक ही सही पर इस बात से सोनिया-नीत कांग्रेस पार्टी की नीयत उजागर हो जाती है। उनकी मानसिकता उभरती है जो राहुल गांधी की उक्ति में झलकी थी। उत्तर प्रदेश विधान सभा (2007) के चुनाव में कांग्रेस के इस तत्कालीन महामंत्री ने मुस्लिम बस्ती में प्रचार अभियान में कहा था कि यदि नेहरू-गांधी कुटुम्ब का कोई सदस्य दिसम्बर 1992 में प्रधान मंत्री रहता तो बाबरी मस्जिद न गिरती। मानो नरसिम्हा राव ने अपने प्रधानमंत्री कार्यालय से हथौड़ा-फावड़ा उन कारसेवकों को मुहय्या कराया था। जब राजीव गांधी की हत्या के बाद नरसिम्हा राव कांग्रेस अध्यक्ष बने और दसवीं लोकसभा चुनाव (1991) में प्रधान मंत्री बने थे तो कांग्रेसी दिग्गजों का अन्दाज था कि नरसिम्हा राव एक लघु कथा के फुटनोट हैं और शीघ्र ही सोनिया गांधी अपनी पारिवारिक वसीयत संभाल लेंगी। किसे पता था कि नरसिम्हा राव एक लम्बे, नीरस ही सही, उपन्यास का रूप ले लेंगे और पूरे पांच वर्ष तक प्रधान मंत्री पद पर डटे रहेंगे। नेहरू परिवार के बाहर का प्रथम कांग्रेसी था जो इस पद पर पूरी अवधि तक रहा।
तभी तंग आकर अर्जुन सिंह, नारायणदत्त तिवारी आदि ने कांग्रेस छोड़कर नई पार्टी बना ली थी। सोनिया गांधी का वरदहस्त उनपर था। मगर भिण्ड के राजपूत और कुमाऊं के द्विज मिलकर भी तेलंगाना के इस नियोगी ब्राम्हण का समरनीति में बराबरी नहीं कर पाये। किनारे पड़ गये। नरसिम्हा राव ने अपने पत्ते ढंग से फेटे और बांटे थे। इन्दिरा गांधी ने उन्हें अक्षम मुख्य मंत्री मानकर 1973 में तेलंगाना आन्दोलन के समय बर्खास्त कर दिया था। मगर शीघ्र ही उसी इन्दिरा गांधी ने दुबारा प्रधान मंत्री बनने पर नरसिम्हा राव को 14 जनवरी 1980 को प्रदेश स्तर से उठाकर सीधे विदेश मंत्री बना दिया। जब पंजाब आतंकवाद से धधक रहा था, दार्जिलिंग में गुरखा और मिजोरम में अलगाववादी समस्या पैदा कर रहे थे तो इन्दिरा गांधी ने नरसिम्हा राव को गृह मंत्री बनाया था। तभी आया अमृतसर के स्वर्ण मन्दिर में सेना का प्रवेश और नरसिम्हा राव पर इन्दिरा सरकार को फिर से बचाने का दायित्व। इन्दिरा गांधी की हत्या के चन्द घण्टो बाद ही हैदराबाद से नरसिम्हा राव को वायुसेना के विमान से दिल्ली लाया गया था। तब सिख-विरोधी दंगों से दिल्ली जल रही थी। बाद में राजीव गांधी ने उन्हें रक्षा तथा मानव संसाधन मंत्री बनाया। इतने सब महत्वपूर्ण पद संभालने के बाद भी नरसिम्हा राव पर हिन्दीभाषी कांग्रेसी सन्देह करते रहे। इसका कारण था हिन्दी का सम्यक ज्ञान, सही शब्द, त्रुटिहीन उच्चारण, उम्दा शैली और उच्च साहित्य की दृष्टि से नरसिम्हा राव उन हिन्दी-भाषी कांग्रेसियों से कहीं ऊपर थे, उत्कृष्ट थे। संस्कृत और फारसी भी धड़ल्ले से बोलते थे। मुझे याद है तब गोरखपुर विश्वविद्यालय के दर्शन विभाग के अध्यक्ष ने कहा कि नरसिम्हा राव सारे प्रधान मंत्रियों से कहीं बड़े भाषाविद तथा हिन्दी के जानकार हैं। उन्हें मैंने टोका था कि यदि भाषा का ज्ञान ही खास अर्हता है तो फिर हिन्दी मास्टर ही प्रधान मंत्री बना दिया जाय। मगर नरसिम्हा राव ने सिद्ध कर दिया कि प्रवाहमयी हिन्दी बोलना एक योग्यता होती है। तो प्रश्न उठता है, “आखिर नरसिम्हा राव की खता क्या थी कि कांग्रेसी उन्हें अपना न सकें|” पहला तो यही कि नरसिम्हा राव की अध्यक्षता वाली कांगे्रस यदि ग्यारहवीं लोकसभा (1996) में बहुमत पा जाती तो नेहरू-गांधी परिवार को तब सर्वोदय शिविर का संचालन कार्य मिलता, या वह व्यापार, वाणिज्य के धंधे में चला जाता। वह इतना आध्यात्मिक कभी रहा नहीं कि हिमालय पर चला जाता। सत्ता और राजनीति के हाशिये पर तब तक वह हो ही गया था।
लेकिन नरसिम्हा राव की कुछ उपलब्धियों का उल्लेख हो तो नाटककार जार्ज बर्नार्ड शा की उक्ति चरितार्थ होती है कि “जन्म पर सभी समान होते हैं। बस मौत पर पता चलता है कि कौन ऊंचाई तक उठा|” नरसिम्हा राव ने जो विशेष कार्य किये वह तो भारी थे अतः डूब गये, मगर जो विफलतायें थी, वे हलकी थीं, अतः सतह पर दिखती रहीं। जैसे अयोध्या प्रकरण। सन्तों से प्रवाहमय संस्कृत में संवाद कर प्रधानमंत्री ने उन्हें कारसेवा टालने हेतु मना भी लिया था। पर भड़काने में माहिर कल्याण सिंह की सरकार के सामने केन्द्र की कांग्रेस सरकार उन्नीस पड़ गई। नरसिम्हा राव ने लोकसभा में कहा भी था कि रामभक्तों (भाजपा) से तो सामना कर सकते थे, पर भगवान राम से नहीं। जनता दोनों के मध्य अन्तर नहीं कर पाई और कांग्रेस पार्टी की रामविरोधी छवि बन गई। वह चुनाव हार गई।
नरसिम्हा राव के व्यक्तित्व के सम्यक ऐतिहासिक आंकलन में अभी समय लगेगा। मगर इतना कहा जा सकता है कि तीन कृतियों से वे याद किए जाएंगे। पंजाब में उग्रवाद चरम पर था। रोज लोग मर रहे थे। एक समय तो लगता था कि अन्तर्राष्ट्रीय सीमा अमृतसर से खिसककर अम्बाला तक आ जाएगी। खालिस्तान यथार्थ लगता था। तभी मुख्यमंत्री बेअन्त सिंह और पुलिस मुखिया के.पी.एस. गिल को पूर्ण स्वाधिकार देकर नरसिम्हा राव ने पंजाब को भारत के लिए बचा लिया। उसके पहले राज्यपाल रहकर भी अर्जुन सिंह पंजाब को कटते देख रहे थे। देश का विकास दर जो आज चोटी पर चढ़ रहा है, यह भी नरसिम्हा राव की देन है। एक कुशल सरकारी मुलाजिम सरदार मनमोहन सिंह को वित्त मंत्री नियुक्त कर नरसिम्हा राव ने आर्थिक चमत्कार कर दिखाया। मनमोहन सिंह इसे स्वीकार चुके हैं। तीसरा राष्ट्रहित का काम नरसिम्हा राव ने किया कि गुप्तचर संगठन रॉ को पूरी छूट दे दी कि पाकिस्तान की धरती से उपजते आतंकी योजनाओं का बेलौस, मुंहतोड़ जवाब दें। अर्थात् यदि पाकिस्तानी आतंकी दिल्ली में एक विस्फोट करेंगे तो लाहौर और कराची में दो दो विस्फोट होंगे। इस्लामाबाद समझ गया कि नरसिम्हा राव ने विजयनगर (आन्ध्र) सम्राट कृष्णदेव राय से इतिहास सीखा है जिसने मुस्लिम हमलावरों को उन्हीं के प्रदेश में हराया।
मगर जीते जी नरसिम्हा राव की जो दुर्गति कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने की वह हृदय विदारक है। उससे ज्यादा खराब उनके निधन पर किया गया बर्ताव रहा है। नरसिम्हा राव के शव को सीधे हैदराबाद रवाना कर दिया ताकि कहीं राजघाट के आसपास उनका स्मारक न बनाना पड़े। पूरे पांच साल तक प्रधान मंत्री रहे व्यक्ति के शव को अकबर रोड वाले कांग्रेस पार्टी कार्यालय के परिसर के भीतर तक नहीं लाया गया। बाहर फुटपाथ पर ही रखा गया। और तो और अधजली लाश को मिट्टी का तेल डालकर शेष संस्कार कार्य किया गया था।
इसी विचारक्रम में याद आती है एक बात दस बरस पुरानी। अपनी अकर्मण्यता और लिबलिबेपन के कारण नरसिम्हा राव ने कांग्रेस पार्टी को ड्राइवर सीट से उतार कर केन्द्र सरकार में कन्डक्टर बना डाला था। उस वक्त सत्ता के खेल में ताल ठोकनेवाले कांग्रेसी ताली पीटते रहे। खाता-बही संभालने वाले बक्सर के पंसारी सीताराम केसरी ने वरिष्ठ और विद्वान नरसिम्हा राव से गद्दी छीन ली थी। खुद पार्टी अध्यक्ष बन गये। मगर इतिहास ने तब स्वयं को दुहराया। दो वर्ष बाद सोनिया गांधी ने अपने दल बल सहित कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष के कमरे का ताला तोड़कर खुद कुर्सी हथिया ली। सीताराम केसरी ने बस इतना विरोध में कहा कि यदि सोनियाजी इशारा कर देती तो वे खुद बोरिया-बिस्तर समेट लेते। सेवक अपनी औकात समझता है। तो बिना किसी चुनाव प्रक्रिया के, बिना नामांकन के, बिना वैध मतदान के, सोनिया गांधी बारह वर्ष पूर्व स्वयंभू पार्टी मुखिया बन गईं। सवा सौ साल की विरासत पर सात साल के बल पर काबिज हो गई।
नरसिम्हा राव कितने भ्रष्ट रहे? वे प्रधानमंत्री रहे किन्तु अपने पुत्र को केवल पैट्रोल पम्प ही दिला पाये। हर्षद मेहता के वकील राम जेठमलानी ने मुम्बई के पत्रकारों को दर्शाया कि उनके मुवक्किल ने सन्दूक में एक करोड़ नोट कैसे लपेट कर नरसिम्हा राव को दिये थे। अर्थात जिसके एक इशारे पर शेयर मार्केट में अरबों का वारा-न्यारा हो जाए उस प्रधान मंत्री ने केवल एक करोड़ में सन्तुष्टि कर ली| वे असहाय इतने थे कि इस भाषाज्ञानी प्रधानमंत्री को अपनी आत्मकथा रूपी उपन्यास के प्रकाशक को स्वयं खोजना पड़ा था। नक्सलियों से अपने खेतों को बचाने में विफल रहे, नरसिम्हा राव दिल्ली में मात्र एक फ्लैट ही बीस साल में साझेदारी में ही खरीद पाये। तो मानना पड़ेगा कि नरसिम्हा राव आखिर अपनी दक्षता, क्षमता, हनक, रुतबा, रसूख और पहुंच में सोनिया के सामने कहीं आसपास भी नहीं फटकते। मगर आज दिख रहा है कि पूरा कुनबा माँ, बेटा और बेटी दया खोज रहे हैं। कब मोदी की दृष्टि वक्र हो जाय। दामाद वाड्रा की हालत इसका प्रमाण है|
(वरिष्ठ पत्रकार के विक्रम राव के फेसबुक वॉल से)