राणा यशवंत
स्यार की एक आदत होती है. एक बोलेगा तो धीरे-धीरे सब बोलने लगते हैं. फिर चारों ओर उनका ही शोर रहता है. बरेली के विधायक राजेश मिश्रा की बेटी, साक्षी की शादी,निजी आजादी और उसके अपने फैसले को लेकर देश के खबरिया चैनलों का शोर कुछ वैसा ही है. साक्षी अपने नए-नवेले पति के साथ चैनलों का न्योता फटाफट थाम रही हैं, और स्टूडियो-स्टूडियो घूम-घूमकर, पिता और परिवार की ज्यादतियों का फरचटनामा बांच रही हैं. वीडियो सोशल मीडिया पर पहले ही डाल चुकी हैं कि मेरे पिता और भाई – मेरी और मेरे पति की जान के पीछे पड़े हैं. गुंडों को पीछे लगा रखा है. इन बातों का रट्टा वो चैनलों पर भी लगा रही हैं. स्वनामधन्य एंकर, बेटी के साहसिक फैसले, प्रेम की जंग, बाप के आतंक, सामंती सोच, वगैरह वगैरह के बैनर उड़ा उड़ा, अपने तरक्कीपसंद और लोकतांत्रिक अधिकारों का पैरोकार होने की मुनादी कर रहे हैं. गजब बहस कर रहे हैं.!!
मुझे लगता है कि राजेश मिश्रा से हर पत्रकार का ये सवाल वाजिब है कि – क्या एक बेटी अपनी मर्जी से अपना जीवन तय नहीं कर सकती? यह सवाल भी सही है कि – क्या जाति के चलते, सम्मान के नाम पर आप दो लोगों की जान ले लेंगे? उनसे पूछा यह भी जाना चाहिए कि बेटी को आपने कैसे पाला कि वो अपने मन की बात आपसे कह भी नहीं सकी कभी? डरा-धमकाकर, दस तरह की बंदिशों में रखकर आपने जब बेटी के मन की नहीं सुनी तो फिर वो आपका मन रखने के लिए अपनी खुशियों को कुर्बान क्यों करे? पूछा तो बहुत कुछ जा सकता है. पूछ भी रहे हैं सबलोग.
लेकिन कुछ और सवाल हैं, जिनका जवाब अगर आप नहीं ढूंढते हैं औऱ ऊपर वाले सवालों की पूंछ पकड़े रहते हैं, तो फिर जानते हैं आप क्या कर रहे हैं? आप गलथेथरई कर रहे हैं. बकैती भी कह सकते हैं. संविधान, निजी आजादी और जाति को लेकर एक मजबूत राय के साथ खड़ा रहना आपकी वैचारिक प्रतिबद्धता का सबूत तो है, लेकिन आपके पास कॉमन सेंस ही नहीं तो फिर ऊपरवाला सब बेकार है. शुरुआती दौर में ये जरुर लगा कि लड़की मुसीबत में है, पढी लिखी है, अपने जीवन का फैसला खुद करना चाहती है औऱ पिता फिल्मी विलेन की तरह हैं, जिनके भेजे गुंडे, हाथ में छुरा और कमर में रिवॉल्वर डाले चक्करघिन्नी काट रहे हैं.
लेकिन पिछले दो-तीन दिनों में बहतु सारी बातें सामने आने लगीं और जरुरी था कि उनको ठीक से समझा जाता. पहले कुछ बातें जान लेते हैं. वैसे जानते ही होंगे आप सब.
– अजितेश नाम के जिस लड़के के साथ साक्षी भागी वो कौन है?
-भाई का दोस्त. घर में बेडरुम तक आने-जाने वाला. घर मे बैठने-खानेवाला.
– साक्षी के अजितेश से प्रेम का पता भाई को चला था. उसने पूछा था. साक्षी ने कहा हां ऐसा है- अब मैं, आप और अजितेश बैठकर बात कर लेंगे.
-साक्षी जब घर से निकली तो घर में लोग थे. पापा-मां और भाई नहीं थे. बाकी तो थे.
-अजितेश ने साक्षी को घर के नजदीक से ही पिक किया.
यानी अजितेश से मिलने-जुलने पर परिवार में कोई रोक नहीं थी. इसी के कारण दोनों के बीच प्रेम बढा होगा. भाई ने पूछा और ये जानकर भी कि दोनों में प्रेम है, उसने कोई जाहिलाना काम नहीं किया. तो अब वो जान से मारने के लिए पागल हो गया है? जो लड़का साक्षी के भाई का दोस्त था, घर में खाता-पिता रहा, वो अचानक दलित हो गया? साक्षी का वीडियो सुनिए – उसमें अजितेश सायास कह रहा है कि मैं दलित हूं इसलिए… और यह बात जहां कहीं भी आई- किसी घुसपैठिए की तरह आई.
दरअसल ये दलित की संवैधानिक-सामाजिक चेतना और संघर्ष के साथ घिनौना मजाक है. बराबरी, जो संविधान की आत्मा है, उसके साथ छल है. लेकिन स्यार-कोरस में ये सब दब गए हैं. अगर मैं ये मान लूं कि अजितेश घर में तो हक से आता- जाता था, लेकिन साक्षी से उसकी शादी हरगिज नहीं हो सकती थी, क्योंकि वो दलित है- तो फिर उसने बिल्कुल सही किया. उसकी दलित वाली बात भी तब सौ फीसदी ठीक है. लेकिन क्या एकबार यह जानना जरुरी नहीं कि अजितेश खुद कैसा है? क्या यह बात कम मायने रखती है, जब किसी पिता को अपनी बेटी के भविष्य का फैसला करना हो? जिस जगह का अजितेश है, वहां के लोगों की मानें तो उसकी इमेज रोड रोमियो की है. दिनभर टंडलई करना, शेखी बघारना, ढेले भर का काम नहीं करना, गाड़ी लेकर इधर से उधर रोड नापना और लंपटई में उस्ताद रहना- यही उसकी हिस्ट्रीशीट है.
अब आप बताइए ऐसे आदमी को कोई पिता अपनी बैटी कैसे सौंप देगा? आप कर देंगे? उस समय बेटी के भविष्य की परवाह किए बगैर उसकी निजी आजादी, संविधान, प्रगतिशीलता- सबका सम्मान करेंगे ना? सच के धरातल पर खड़ा नहीं होंगे तो फिर बकैती ही करेंगे. यह दरअसल एक बालिग लड़की की कच्ची समझ और अपनी बेटी की बेहतरी चाहनेवाले पिता की नैतिक जिम्मेदारियों की लड़ाई है.
अगर राजेश मिश्रा सख्त बाप थे, तो फिर जिस रोज वे पति-पत्नी लखनऊ गए थे, बेटा भी बाहर था, उस रोज घर पर पहरा बिठाना चाहिए था! अपने लठैतों को बता कर रखना चाहिए था कि जाने नहीं देना इस लड़की को, अगर ये कहीं बाहर जाती है तो. काम आसान था. नहीं किया. दरअसल मिश्रा जी साक्षी की शादी किसी अधिकारी से करने का मन बना रहे थे- और ऐसा भला क्यों ना करें? विधायक हैं, अच्छा-खासा नाम है, बेटी के ब्याह में तो अपने यहां लोग सारा जोर लगा देते हैं. वो भी लगाते शायद. लेकिन बेटी भाग गई. उनके अऱमान धरे के धरे रह गए. ऊपर से अपने पति को लेकर वो, उन्हीं पर गंभीर आरोप लगा रही है. उसके सवालों का मिश्रा जी से जवाब देते नहीं बन रहा. यह भी तो पता करना चाहिए कि उस पिता ने बेटी को कितने लाड़ और नाज से पाला है. बेटी का हर कहा क्या सचमुच सही है?
दरअसल साक्षी, बालिग हो सकती है, लेकिन ऐसा लग रहा है कि वो जज्बाती ज्यादा हो रही है. जिस लड़के ने उसके साथ शादी की है, वो सयाना और शातिर है. उसने उसका ब्रेनवॉश कर रखा है. उसके ट्रैक रिकार्ड की मैंने बानगी भर रखी है, बाकी सब जल्द ही आपसबों के सामने होगा. वैसे पत्रकारों को तो जाकर पता करना ही चाहिए कि जिस आदमी के लिए सिर आसमान पर लिए हुए हैं, उसका सच क्या है. बेटी, किसी ऐसे आदमी को चुन रही हो, जिसके सही इंसान होने पर ही सवाल हो, तो पिता बस इसलिए हामी भर दे कि यह बेटी के मौलिक अधिकार या फिर प्रगतिशील सोच का मामला है? तो फिर सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला भी गलत है कि बुजुर्ग मां-बाप की देखरेख नहीं करनेवाली औलादों को सजा होगी. संविधान तो कहता नहीं. मौलिक अधिकार तो मां बाप का बनता नहीं, औलाद से पैसा लेकर अपना जीवन चलाने का. फिर? नैतिक जिम्मेदारी ही ना ? उसी नाते ही देश की सबसे बड़ी अदालत बेटे को मां-बाप की देखरेख के लिए मजबूर करती है ना? तो फिर क्या एक समर्थ पिता पर वो नैतिक जिम्मेदारी लागू नहीं होती कि वो अपनी औलाद का जीवन अच्छा करने-रखने की कोशिश करे?
मैं कहता हूं कि अजितेश से साक्षी की शादी के लिए किसी भी कीमत पर राजेश मिश्रा तैयार नहीं हो सकते थे. उसका सबसे बड़ा कारण एक ही था- उनका होनेवाला दामाद उनकी बेटी को वो जीवन नहीं दे सकता था, जैसा वो जीती रही है. दलित होना उतना बड़ा कारण हो ही नहीं सकता. संभव है मिश्रा जी सामंती और जातिवादी सोच के होंगे, तो दो-तीन दिन तकलीफ में रहते, लेकिन बेटी एक काबिल और समझदार आदमी के साथ है- ये सोचकर वो खुश हो जाते. बेचारे के पास तो आज कुछ भी नहीं है. ऊपर से दुनिया भर से ऊलजुलूल सवाल. जिसको बोलने तक का शऊर नहीं, वो भी लपेटे हुए है.
साक्षी का जीवन अजितेश के साथ कल कैसा होगा – ये अब उन्हीं दोनों लोगों के बीच का मामला है, लेकिन आनेवाले दिनों में आप देख लीजियेगा, एक आदमी, प्रेम में पागल एक लड़की का जीवन खराब कर चुका है. क्या नैतिकता के लिहाज से भी इस मामले को आप इस नजर से नहीं देखेंगे? वैचारिकता का संकट खड़ा हो जाएगा? आदर्श के बलूहर खंभों की नींव हिल जाएगी? अच्छाा चलिए, ये बताइए कि जैसे बेटी को अपना जीवनसाथी चुनने की आजादी है, पिता को अपनी नापसंदगी जाहिर करने की नहीं है? माना प्रेम में ताकत होती है लेकिन पिता नो जो किया वो सब शून्य है? हां ये सुन लीजिए, मैं निजी आजादी और बराबरी के अधिकार के किसी भी पुरोधा से ज्यादा बड़ा समर्थक हूं. लेकिन संस्कारों की ऐसी अर्थी भी ठीक नहीं लगती. इस स्यार-कोरस में एक बच्ची ने जिद में अपनी बलि चढा ली और जमाना तालियां बजा रहा है.
(इंडिया न्यूज के पूर्व प्रबंध संपादक राणा यशवंत के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)