पटना। बिहार में लालू यादव के जंगलराज के दौरान जातीय हिंसा एक आम बात थी। मीडिया का एक बड़ा हिस्सा ये तुलना करने में लगा रहता है कि इन 15 सालों में बिहार में सांप्रदायिक दंगे नहीं हुए और गुजरात में खूब हुए। लेकिन, बिहार में लालू के राज में हुई जातीय नरसंहार की घटनाओं पर बात नहीं होती। सब जातियाँ ही आपस में लड़ रही थीं तो भला वो एकजुट कैसे होतीं? ये बिहार का वो ‘सामाजिक न्याय’ था, जिसकी बात लालू परिवार करता रहा है।
वो लालू यादव का ही राज था, जब बिहार में माओवादियों ने अपना सिर उठाया। कथित ऊँची-जाति के लोगों के नरसंहार होने लगे। इसके बाद सवर्णों की तरफ से भी संगठन खड़े हो गए और इस तरह से ‘खून के बदले खून’ की नीति पर काम होने लगा। बिहार में पूरा नब्बे का दशक जातीय नरसंहार की घटनाओं से भरा पड़ा है, जिनमें से प्रमुख की हम यहाँ चर्चा करेंगे। इससे हमें समझने में मदद मिलेगी कि कैसे लालू राज में क़ानून-व्यवस्था नाम की कोई चीज थी ही नहीं।
1999: जब जहानाबाद में होता था मौत का तांडव
ये वो समय था, जब जहानाबाद में सीपीआई (माओवादी) और रणवीर सेना आमने-सामने थे। जहाँ एक तरफ खूँखार माओवादी संगठन बेरहमी से सवर्णों की हत्या कर रहा था, वहीं दूसरी तरफ रणवीर सेना भी ‘बदला’ लेने के लिए उतारू थी और इस दौरान कई वारदातें हो रही थीं। 1999 में जहानाबाद में साल के पहले 10 सप्ताह में ही 80 लाशें गिर चुकी थीं। सेनारी का नरसंहार आज भी लोगों के जेहन में है।
तब अप्रैल 5, 1955 को आई ‘इंडिया टुडे’ मैगजीन में प्रकाशित ग्राउंड रिपोर्ट में अभय किशोर नाम के एक ग्रामीण का जिक्र था, जिनके भाई और भतीजे को माओवादियों ने मौत के घाट उतार दिया था। उन्होंने कहा था, “क्या सोनिया गाँधी यहाँ तभी आएँगी, जब दलितों की हत्या होगी?” रवींद्र चौधरी नामक एक ‘भूमिहार’ जाति के व्यक्ति ने कहा था, “हम गाँधी की तरह बैठ कर तमाशा नहीं देख सकते, इसीलिए हम सब ने सुभाष चंद्र बोस बनने का फैसला किया है।”
वहीं, दलित भी इस आशंका से घिरे रहते थे कि जब माओवादी नरसंहार का बदला लेने वाले लोग आकर उनका काम तमाम कर दें। तब विपक्ष के नेता रहे सुशील कुमार मोदी ने कहा था कि ये राजद वाले ही दिन में राजनीति करते हैं और राज होते ही वो माओवादी बन जाते हैं। यह भी कहा जाता था कि राजद और MCC (प्रतिबंधित माओवादी संगठन) का आपस में अप्रत्यक्ष गठबंधन था। पुलिस तक इस संगठन से डरती थी।
पुलिस का कहना था कि माओवादी उन्हें सुनसान इलाकों में देखते ही घेर लेते हैं और उनका हथियार छीन लेते हैं। जो छोटे जमींदार थे, उनमें भी माओवादियों के कारण भय का माहौल था। जमीन होने पर भी कई लोगों ने उसे छोड़ रखा था और खेती नहीं करते थे, ताकि माओवादियों की नजर न पड़े। पुलिस की निष्क्रियता की परिणीति ही ‘रणवीर सेना’ के रूप में हुई और दोनों प्रतिबंधित संगठनों के बीच हिंसक संघर्ष चला।
राघोपुर नरसंहार: लालू के बिहार में जातीय हिंसा का भयानक रूप
पटना के बिहटा में स्थित है पटुत, जहाँ के राघोपुर गाँव में अप्रैल 21, 1997 की रात मौत नाची थी। उससे पहले बिहार पुलिस की बात कर लेते हैं, जो नेताओं की सुरक्षा में लगी हुई थी और भ्रष्टाचार व जातिवाद के कारण अपना काम ही भूल गई थी। अंग्रेजों के जमाने के हथियार थे, सो अलग। जून 1996 में गया के टेकारी पुलिस थाने में माओवादी घुसे और आराम से 5 पुलिसकर्मियों को मौत के घाट उतार कर सारे हथियार लूट कर चलते बने।
उससे एक साल पहले देहरी-गया पैसेंजर ट्रेन में दिनदहाड़े 3 पुलिसकर्मियों की हत्या कर दी गई थी। स्थिति ये थी कि 1996 में संज्ञेय अपराधों की संख्या 1.31 लाख पहुँच चुकी थी। उससे एक साल पहले ये संख्या 1.2 लाख के आसपास थी। 1997 में ही जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष रहे चंद्रशेखर प्रसाद को मार डाला गया था। ये वो समय था, जब हर घंटे 16 लोग या तो मारे जा रहे थे, या फिर लूटे ये अपहृत किए जा रहे थे।
इसी बीच लालू के बिहार में जातीय नरसंहार का एक रूप राघोपुर में देखने को मिला, जहाँ हथियारबंद माओवादी गाँव में घुसे और उन्होंने ‘भूमिहार’ जाति के 6 लोगों को मौत के घाट उतार दिया। तब विधायक रहे जनार्दन शर्मा के घर में बम फिट कर के उसमें 2 बार विस्फोट किया गया। माओवादियों की एक खासियत थी कि वो हमेशा 200-300 ये उससे भी अधिक की संख्या में आते थे। गाँव के आसपास रुक कर तैयारी करते थे, फिर हमला बोलते थे।
पवन सिंह नाम का एक व्यक्ति विधायक के घर में सो रहा था, जिसे खींच कर बाहर लाया गया और उसकी जाति की पहचान कर के उसे गोली मार दी गई। नक्सलियों ने गाँव को घेर कर कुछ लोगों को मौके पर ही मार डाला तो कुछ को लेकर वो जंगलों में गए। गाँव में फोन होने के कारण और लोगों की जानें बच गईं क्योंकि पुलिस से संपर्क कर के घटना का ब्यौरा दे दिया गया था। ये फोनलाइन भी नई-नई ही लगाई गई थी।
अब जब क्रिया हुई, तो प्रतिक्रिया भी हुई। राघोपुर में नरसंहार के बाद हैबसपुर में भी दलितों का खून बहा। 10 दलित मार डाले गए। इस घटना के 8 आरोपितों की सुनवाई के दौरान ही मौत हो गई थी, 13 फरार हो गए और अंत में 28 को बरी कर दिया गया। कहा जाता है कि ‘रणवीर सेना’ के लोग प्रतिशोध की ऐसी आग में जल रहे थे कि उन्होंने लौटते समय गाँव के कुएँ पर खून से संगठन का नाम लिख दिया था।
बारा: जब ‘भूमिहार’ जाति के 40 लोगों को सुला दिया गया मौत की नींद
अगस्त 12-13, 1992 का दिन। गया जिला का बारा गाँव। माओवादियों ने इलाके को घेरा और ‘भूमिहार’ जाति के 35 लोग घर से निकाले गए। पास में एक नहर के पास ले जाकर उनके हाथ बाँधे गए और सबका गला रेत कर मार डाला गया। इस मामले में सुनवाई लम्बी चली लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला। न तो पुलिस उन अपराधियों को पकड़ पाई और न ही नक्सलियों ने पुलिस की समन को कोई तवज्जो दी।
जून 2001 में सेशन कोर्ट ने 9 लोगों को दोषी माना और इसके अगले साल सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले को बरक़रार रखा। इनमें से 3 को मौत की सज़ा सुनाई गई थी। हालाँकि, जनवरी 2017 में राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने इन सबकी फाँसी की सज़ा माफ़ कर दी। कहते हैं कि इस घटना के बाद भी ‘रणवीर सेना’ ने पलटवार किया था और हिंसक संगठन ने लक्ष्मणपुर-बाथे में 58 दलितों को मार डाला गया। इसकी सुनवाई भी लम्बी चली।
यूँ गिनाने को तो बाथे, बथानी टोला, नाढ़ी, इकवारी, सेनारी, राघोपुर, रामपुर चौरम, मियाँपुर जैसी कई नरसंहार की घटनाएँ हैं, जिन्होंने पटना के अलावा जहानाबाद, अरवल, औरंगाबाद और शाहाबाद में क़ानून-व्यवस्था का नामोंनिशान ही ख़त्म कर दिया था। लेकिन, ‘क्रिया’ और ‘प्रतिक्रिया’ का ये दौर यूँ ही चलता रहा। लालू यादव बिहार के इन जातीय नरसंहारों के बीच अपनी ‘सामाजिक न्याय’ की व्यवस्था चलाते हुए वोट बैंक की राजनीति करते रहे।
जातीय हिंसा से अछूती नहीं थी राजनीति
बिहार में ये वो दौर था, जब राजनीति में भी जातिवाद चरम पर था। जहाँ एक तरफ लालू यादव माई (मुस्लिम-यादव) समीकरण बना रहे थे, वहीं दूसरी तरफ लोगों में चर्चा थी कि वो ‘भूरा बाल साफ़ करो’ (भूमिहार-ब्राह्मण-राजपूत-लाला) की नीति पर काम कर रहे थे। जाति के आधार पर तो टिकट आज भी बाँटे जाते हैं, लेकिन जातिगत राजनीतिक दुश्मनी उस दौरान चुटकियों में यूँ हिंसा की वारदातों का रूप ले लेती थी।