बिलकिस बानो केस में गुजरात सरकार को सुप्रीम कोर्ट ने लिया आड़े हाथों, दोषियों की रिहाई पर दागे सवाल

नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को 2002 के बिलकिस बानो गैंगरेप मामले में 11 दोषियों को सजा में छूट दिए जाने पर गुजरात सरकार को आड़े हाथ लिया और पूछा कि रिहाई से पहले दोषियों को दोषी ठहराने वाली मुंबई की अदालत से परामर्श क्यों नहीं किया गया था? सजा में छूट की राहत वाली पॉलिसी सभी दोषियों पर लागू होती है, सिर्फ चुनिंदा पर नहीं। कोर्ट ने कहा कि जिन कैदियों ने 14 साल पूरे कर लिए हैं, उन्हें दी जाने वाली राहत को चुनिंदा कैदियों पर ही क्यों लागू किया गया? राज्य सरकारों को दोषियों को छूट देने में चयनात्मक नहीं होना चाहिए और प्रत्येक कैदी को सुधार और समाज के साथ फिर से जुड़ने का अवसर दिया जाना चाहिए।

अदालत 2002 के गुजरात दंगों के दौरान तीन सामूहिक बलात्कार और 14 हत्याओं के जघन्य अपराधों के आरोप के बावजूद पिछले अगस्त में 11 दोषियों की रिहाई को चुनौती देने वाली जनहित याचिकाओं (पीआईएल) के साथ पीड़िता बिलकिस बानो द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई कर रही थी।

गुजरात की ओर से पेश हुए अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल (एएसजी) एसवी राजू ने अदालत को बताया कि राज्य शीर्ष अदालत के 13 मई के फैसले का पालन करने के लिए बाध्य है, जो दोषियों में से एक -राधेश्याम भगवानदास शाह के मामले में पारित किया गया था, जिसमें राज्य को निर्णय लेने का निर्देश दिया गया था। उन्होंने अदालत को बताया कि राज्य ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 432 के तहत छूट की प्रक्रिया का पालन किया और 3 जून को गोधरा अदालत के पीठासीन न्यायाधीश की राय ली और एक जेल सलाहकार समिति का गठन किया, जिसने स्थानीय पुलिस की राय पर विचार किया।

जेल अधीक्षक और निचली अदालत के न्यायाधीश ने पिछले साल 10 अगस्त को कैदियों की रिहाई की सिफारिश की थी। जस्टिस बीवी नागरत्ना और उज्जल भुइयां की बेंच ने कहा, ”गोधरा अदालत दोषी ठहराने वाली अदालत नहीं थी। 13 मई को जब इस कोर्ट ने आदेश पारित किया तो फाइल पहले ही महाराष्ट्र भेजी जा चुकी थी। गोधरा में सत्र अदालत से दूसरी राय लेने की क्या जरूरत थी।” बेंच अगस्त 2019 में शाह द्वारा दायर पहले माफी आवेदन का जिक्र कर रही थी, जिसे तब गुजरात अधिकारियों ने महाराष्ट्र भेज दिया था, जहां मुंबई अदालत ने नकारात्मक राय दी थी, जिसने सभी 11 आरोपियों को दोषी ठहराया था।

राजू ने कहा, ”चाहे वह एक्स या वाई जज हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। उन्हें दोषी ठहराने वाले जज सेवानिवृत्त हो चुके थे। यह एक दुर्लभ स्थिति है जो तब उत्पन्न हुई जब अपराध गुजरात में हुआ लेकिन शीर्ष अदालत ने मुकदमा मुंबई ट्रांसफर कर दिया। महाराष्ट्र में सत्र न्यायाधीश का इस पर कोई दृष्टिकोण नहीं होगा कि कोई व्यक्ति गुजरात में कैसा कर रहा है। इन सभी व्यक्तियों के बारे में जानने के लिए सबसे अच्छा व्यक्ति गुजरात में ही होना चाहिए।” कोर्ट ने जवाब दिया, ”ऐसा कभी नहीं होगा कि दोषी ठहराने वाला जज उपलब्ध रहेगा। हर तीन साल में एक जज का तबादला हो जाता है। इस मामले में 14 साल लग गए, जज कब तक रिटायर होंगे? यह न्यायालय के पीठासीन न्यायाधीश द्वारा सीआरपीसी की धारा 432(2) के तहत दी जाने वाली एक वैधानिक राय है, नाकि कोई मामला।

अदालत ने राज्य सरकार से पूछा कि क्या 13 मई को शीर्ष अदालत से कोई आदेश नहीं आया था, तो 11 दोषियों के लिए कौन सी छूट नीति लागू की जानी थी, जिस पर राजू ने जवाब दिया कि सजा की तारीख पर कौन सी नीति लागू थी। मुंबई अदालत ने जनवरी 2008 में 11 लोगों को दोषी ठहराया जब 1992 की नीति लागू थी। यह नीति 2014 में ही बदल गई जिसके तहत सामूहिक दुष्कर्म के दोषी सजा में छूट के पात्र नहीं होंगे। राजू ने कहा कि 13 मई का फैसला आज तक वापस नहीं लिया गया है और किसी भी याचिकाकर्ता ने यह तर्क नहीं दिया है कि 1992 की नीति खराब है।

बेंच ने राज्य सरकार को याद दिलाया, ”आपको इस मामले की पृष्ठभूमि को ध्यान में रखना चाहिए। इस अदालत ने मामले को एक अलग क्षेत्राधिकार में भेज दिया और दोषपूर्ण जांच (राज्य द्वारा) के कारण मामले की जांच सीबीआई से कराई।” राज्य ने कहा कि छूट के मामलों में, सीबीआई परामर्श के लिए सही प्राधिकारी नहीं होगी। राजू ने कहा, ”अगर सीबीआई नवी मुंबई में बैठकर गोधरा में हुए किसी अपराध की जांच करती है, तो उसे जमीनी हकीकत के बारे में कुछ भी पता नहीं चलेगा कि किसी गवाह को आरोपी द्वारा धमकी दी जा रही है या नहीं। इस मामले के अजीबोगरीब तथ्यों में, स्थानीय पुलिस अधीक्षक ऐसी राय देने के लिए सही व्यक्ति होंगे।”

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