प्रदीपिका सारस्वत
दुकानों के साइन बोर्ड यहां फारसी में लिखे गए हैं, फिर चाहे वह जनरल स्टोर हो या फिर डेंटिस्ट का क्लीनिक. कई दुकानों का नाम भी अफग़ान शहरों के नाम पर हैं, कहीं बल्क़ रेस्टोरेंट है तो कहीं हेरात जनरल स्टोर, कहीं मज़ार रेस्टोरेंट तो कहीं काबुल सुपर मार्किट या ख़ुरासान ट्रैवल एजेंसी. अफगानिस्तान के परंपरागत कासिमी/दोस्तोमी या कंधारी कुर्ते पहने हुए पुरुषों और बुर्के-हिजाब वाली औरतों को आस-पास सामान खरीदते और रेस्तराओं में खाते-पीते देखकर थोड़ी देर के लिए लगता है कि आप अफगानिस्तान के किसी शहर में हैं. लेकिन इन्हीं दुकानों के आस-पास तमाम मनी चेंजर और ट्रैवल एजेंट्स का होना आपके बता देता है कि यह आपके शहर का वह इलाका है जहां देश के बाहर से आए हुए लोग रहते हैं. यहां दिल्ली के लाजपत नगर की बात हो रही है.
‘अफगानिस्तान से दिल्ली चार तरह के लोग आते हैं’, पिछले तीन महीने से दिल्ली में रह रहे काबुल के अली अमानी बताते हैं, ‘एक तो स्टूडेंट्स क्योंकि भारत की सरकार अफगानिस्तानी स्टूडेंट्स को काफी स्कॉलरशिप देती है. लेकिन ज़्यादातर स्टूडेंट्स को दिल्ली के बजाय बाकी कॉलेजों और यूनिवर्सिटीज़ में भेज दिया जाता है. शायद इसलिए कि पहले ही दिल्ली में बहुत ज़्यादा अफगान रहते हैं. दूसरे यहां आते हैं रिफ्यूजी और असाइलम सीकर.’
अली बताते हैं कि ये अफगानी चार खेपों में भारत आए हैं. पहली खेप 1970-1980 में आई जब अफगानिस्तान तत्कालीन सोवियत संघ कब्ज़े में था. दूसरी खेप आई 1990 से 1996 के बीच जब यह देश गृहयुद्ध की चपेट में था और सत्ता के लिए अलग-अलग समुदाय एक दूसरे से लड़ रहे थे. इसके बाद 1996 में तालिबान के आने के बाद एक बार फिर हज़ारों अफगान परिवारों ने मुल्क छोड़ा. 2001 के बाद आर्थिक और सुरक्षा कारणों से भी काफी अफगानी भारत, पाकिस्तान, रूस, चीन और तुर्की जैसे देशों का रुख करते रहे हैं.
अली अमानी कहते हैं, ‘भारत में आकर रहने वाले तीसरी तरह के अफगान मेडिकल टूरिस्ट्स हैं. ये दिल, गुर्दे और बाकी तमाम बीमारियों के इलाज के लिए भारत आते हैं. इनकी तादाद काफी ज़्यादा है. और चौथी कैटेगिरी में वो अफगान आते हैं जिनके पास पैसा है और वो अफगानिस्तान के माहौल से बाहर निकल कर कुछ अच्छा वक्त बिताना चाहते हैं. ये आखिरी दोनों तरह के लोग बहुत से बहुत तीन महीने तक रुकते हैं.’
पढ़ाई के सिलसिले में पेशावर, बेंगलुरु और दिल्ली में कई साल बिता चुके 27 साल के अली काफी साफ हिंदी में सारी बातें समझाते हैं. अली अफगानिस्तान का काफी ज़्यादा रखा जाने वाला नाम है. लाजपत नगर में हम एक और अली से मिलते हैं. तीन साल पहले जलालाबाद से भारत आए मोहम्मद अली सिर्फ 16 साल के हैं. वे अपनी मां और दो छोटी बहनों के साथ भोगल में रहते हैं और लाजपत नगर में चिकन सूप बेचते हैं. मोहम्मद अली बताते हैं, ‘अफगानिस्तान में मैं स्कूल जाता था. लेकिन जब वहां बहुत खतरा हो गया तो हम इंडिया आ गए. यहां मेरी मां अफगान औरतों के लिए दुभाषिए का काम करती हैं और थोड़ा बहुत पैसा कमा लेती हैं. बाकी मैं यहां सूप बेचता हूं और एक दिन के तीन सौ रुपए कमाता हूं. दोनों छोटी बहनें पास ही भोगल के एक स्कूल में पढ़ने जाती हैं.’
भोगल और मालवीय नगर में अफगानिस्तान से आए वे लोग रहते हैं जो लंबे समय तक यहां रहना चाहते हैं. इनमें से ज़्यादातर शरणार्थी यानी असाइलम सीकर्स हैं. इन लोगों के मामले यूनाइटेड नेशंस हाई कमीशन फॉर रिफ्यूजीज, इंडिया (यूएनएचसीआर) के पास दर्ज हैं. यूएनएचसीआर की फरवरी 2016 की फैक्टशीट के मुताबिक भारत में 13,381 अफगान शरणार्थियों के मामले दर्ज हैं जिनमें से 3,885 मामले अफगान हिंदू-सिखों के हैं जो भारत की नागरिकता चाहते हैं. इस तरह के बहुत से अफगान हिंदू और सिख शरणार्थियों को न्यूट्रलाइज़ किया जा चुका है. उदाहरण के लिए एक जनवरी से 31 जनवरी 2016 के बीच 14 अफगान हिंदू-सिखों को भारत की नागरिकता दी गई.
बाकी अफगान शरणार्थी भारत में लंबे समय तक रहने के लिए लंबी अवधि के वीज़ा या एलटीवी के भरोसे हैं. यह वीज़ा पांच साल के लिए मान्य होता है. भारत में असाइलम सीकर्स के आने की एक वजह काबुल में यूएनएचसीआर का न होना भी है. ‘अफगानिस्तान से बाहर निकलने वाले बहुत से शरणार्थी पाकिस्तान जाते हैं, लेकिन पाकिस्तान के यूएनएचसीआर दफ्तर में पहले ही इतने अफगान रजिस्टर्ड हैं कि उनके मामले आगे बढ़ने में सालों लग जाते हैं. तो जिनके पास थोड़ा पैसा होता है वो इंडिया आने की कोशिश करते हैं. ज़्यादा पैसे वाले लोग तुर्की या वेस्टर्न कंट्री चले जाते हैं,’ मोहम्मद अली के पास चिकेन सूप पीने आए मंज़ूर बताते हैं. वे भी काबुल से हैं और इन दिनों यूएनएचसीआर के लिए दुभाषिए का काम कर रहे हैं. मंज़ूर यहां अकेले रहते हैं. उनका परिवार काबुल में ही है और उनके कुछ चचेरे भाई ब्रिटेन में रहते हैं. वे सभी काम और बेहतर ज़िंदगी की तलाश में अपने देश और परिवार से दूर रह रहे हैं.
भारत में अफगान शरणार्थियों की स्थिति पर मंज़ूर कहते हैं, ‘हम यहां सुरक्षित तो हैं पर रोज़ी-रोटी का सवाल हम में से बहुत से लोगों के लिए मसला है. कुछ लड़के अफगानी रोटियों की दुकानें लगाते हैं, और ज़्यादातर लड़के लाजपत नगर के अफगान रेस्तराओं, कैमिस्ट की दुकानों, ट्रेवल एजेंसियों और प्रॉपर्टी डीलर्स के यहां काम करते हैं.’ लाजपत नगर के मशहूर अफगानी रेस्तरां मज़ार के ठीक सामने कस्तूरबा निकेतन का दरवाज़ा है. इस कॉलोनी में पंजाबी परिवार हैं, जिनमें से ज़्यादातर अफगानिस्तान से आए सिख हैं. ये सब फारसी बोलते हैं. इनके घरों के बाहर फारसी में लिखे ‘टू लेट’ यानी ‘किराए के लिए खाली’ के नोटिस देखे जा सकते हैं. ‘इलाज़ के लिए आए ज़्यादातर अफग़ान यहीं कस्तूरबा निकेतन में रुकते हैं. हर रात के 500 से 1000 रुपए के बीच के हिसाब से यहां इन्हें कमरा मिल जाता है. अफग़ान सिखों के साथ इन लोगों का अच्छा तालमेल हो जाता है तो होटल में रहने की बजाय ये यहीं रहना पसंद करते हैं. इस इलाके की पूरी इकॉनमी अफग़ानों से चलती है,’ मंज़ूर बताते हैं.
अगर दिल्ली से बाहर जाने की बात करें तो टूरिस्ट्स के लिए समस्या नहीं है लेकिन, असाइलम का इंतज़ार कर रहे लोगों के लिए ये आसान नहीं है. ‘शरणार्थी अफगानों को यूएनएचसीआर का आइकार्ड मिल जाता है लेकिन दिल्ली से बाहर ज़्यादातर लोग इसे पहचान के लिए काफी नहीं मानते. इसलिए अधिकतर शरणार्थी दिल्ली में ही काम तलाशने की कोशिश करते हैं, जिन्हें काम नहीं मिलता वे यूएनएचसीआर से मिलने वाली मदद पर निर्भर रहते हैं,’ मंज़ूर बताते हैं. रोज़गार एक समस्या ज़रूर है लेकिन इन दिनों जहां पाकिस्तान में बसे ज़्यादातर शरणार्थियों को वापस लौटने पर बाध्य किया जा रहा है वहां भारत अब भी युद्ध-पीड़ित अफगानों के लिए सुरक्षित स्वर्ग बना हुआ है. लाजपत नगर की गलियों में बसा छोटा काबुल इस बात की पूरी गवाही देता है.